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________________ काव्यप्रकाशः भेदान्वयापत्तेः, लक्षणापक्षे तु लक्ष्यताया लक्ष्यतावच्छेदकताया वा' [ श्च] व्यासज्यवृत्तितया तदैक्येन नोक्तदोषः, भिन्नभिन्नपदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नयोभिन्नभिन्नपदार्थतावच्छेद कयोर्विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धपदोपस्थाप्ययोरेवाभेदान्वयव्युत्पत्तेरभ्युपगमादिति दिक् । संज्ञाया अन्वर्थतां व्यनक्ति - उपादानेनेति शक्यस्यापरपदार्थान्वयेनेत्यर्थः, जातावेव शक्तिर्व्यक्तिर्लक्षणालभ्याऽनन्यलभ्यस्य शक्यत्वात् न चान्वयानुपपत्तिज्ञानाभावान्न लक्षणेति वाच्यम्, गौरुत्पन्ना गौर्नष्टेत्यादौ जातेरुत्पादाद्यसम्भवेन तत्सत्त्वात् । तदुक्तम् ६४ जातावस्तित्वनास्तित्वे, नहि कश्चिद् विवक्षति | नित्यत्वाल्लक्षरणीयाया व्यक्तेस्ते हि विशेषणे ॥१॥ इति । हुआ है इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थ के आश्रय दोनों हैं; अतः लक्ष्यता एकनिष्ठ धर्म नहीं, किन्तु अनेकनिष्ठ धर्म है अतः यहाँ लक्ष्यता व्यासज्यवृत्ति धर्म है । यद्यपि दोनों जगह की लक्ष्यता अव्यासज्यवृत्ति और व्यासज्यवृत्ति धर्म होने के कारण भिन्न-भिन्न है, तथापि दोनों जगह लक्ष्यतावच्छेदकता अव्यासज्यवृत्ति ही है क्योंकि कुन्तत्वेन कुन्तधर की और छत्रत्वेन छत्र और छत्राभाव दोनों की उपस्थिति हो जाती है । अर्थात् कुन्तार में विशेषण रूप से अनुप्रविष्ट कुन्तत्वरूप सामान्यधर्म के कारण जैसे सकल कुन्तधर की उपस्थिति हो जाती है, उसी तरह "छत्रिणः " ( छत्रधारी) में विशेषण - रूप से अनुप्रविष्ट छत्रत्वरूप सामान्य धर्म के कारण छत्र और छत्राभाव दोनों की उपस्थिति हो जायेगी । इस तरह कुन्तत्वधर्म जिस प्रकार एकनिष्ठधर्म होने से अव्यासज्यवृत्ति धर्म है, उसी प्रकार छत्रत्व भी एकनिष्ठधर्म होने से अव्यासज्यवृत्तिधर्म है यह तथ्य यहाँ सावधानी से समझने योग्य है । इस तरह शक्ति (अभिधा ) से छत्र की और लक्षणा से छत्राभाव की उपस्थिति हुई है, ऐसा ही क्यों नहीं मान लेते हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा मानने पर छत्र और छत्राभाव दोनों में अभेदान्वय हो जायगा । लक्षणा-पक्ष में तो दोष नहीं होता है; क्योंकि इस पक्ष में लक्ष्यता के व्यासज्यवृत्ति होने के कारण दोनों अर्थों में एकता है या लक्ष्यतावच्छेदकता की अव्यासज्यवृत्तिता के कारण उपस्थित अर्थों (छत्र और छत्राभाव) में एकता है इसलिए अभेदान्वय नहीं होता है । क्योंकि उन पदार्थों में अभेदान्वय माना जाता है जिनकी उपस्थिति विरुद्ध विभक्ति-रहित पदों से होती हो और जो भिन्न-भिन्न पदार्थतावच्छेदक धर्मों से अन्त हो अर्थात् जिनके पदार्थतावच्छेदक धर्म अलग-अलग हों, साथ ही साथ जो भिन्न-भिन्न पदार्थों के अवच्छेदक हों । यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक की अव्यासज्यवृत्तिता के एक होने के कारण दोनों अर्थ भिन्न-भिन्न पदार्थतावच्छेदका - वच्छिन्न नहीं है । जाति तो न उत्पन्न होती है न नष्ट होती है। इसलिए नष्ट, मृत इत्यादि में जाति के उत्पत्ति और विनाश से रहित होने के कारण (व्यक्ति) में लक्षणा माननी पड़ेगी । तत्सत्त्वात् अर्थात् 'लक्षणायाः सत्त्वात्' यहाँ 'व्यक्ती' का अध्याहार या शेष समझना चाहिए । इसलिए कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जाति में अस्तित्व और नास्तित्व की विवक्षा नहीं करता है । अर्थात् जब कोई कहता है "गोर्नष्टा" "गौर्जायते" या "गौरस्ति" तो वह गो इस प्रकार की विवक्षा नहीं रखता है; क्योंकि जाति नित्य है । इसलिए ऐसे लेना चाहिए | वे अस्तित्व और नास्तित्व उसी लक्षणा के द्वारा प्रतिपाद्य व्यक्ति के विशेषण बनते हैं । जाति नष्ट हुई या उत्पन्न हुई, या है; प्रयोगों में लक्षणा के द्वारा व्यक्ति अर्थ १. यहाँ 'वा' पाठ ही मुझे युक्तियुक्त जान पड़ता है। "वा" के आगे " अव्यासज्यवृत्तितया " के रूप में सन्धिविच्छेद मानना चाहिए। पूर्वापर- सन्दर्भ से यही पाठ शुद्ध प्रतीत होता है । श्लेष के कारण लक्ष्यताया के साथ "व्यासज्यवृत्तितया” और लक्ष्यतावच्छेदकताया के साथ 'अव्यासज्यवृत्तितया' का अन्वय मानकर सन्दर्भानुकूल हिन्दी अनुवाद किया गया है। - अनुवादक ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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