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________________ द्वितीय उल्लासः ननु 'गङ्गाय घोषमत्स्यो' 'गां पश्येत्यादावुभयत्र तात्पर्ये शक्तिलक्षणाभ्यामुभयोपस्थितिवत् कुन्ताः प्रविशन्तीत्यत्रापि प्रवेशनान्वयस्योभयत्र तुल्यत्वाद् शक्तिलक्षणाभ्यामुभयोपस्थितिरस्तु कुन्तनिरूपित संयोगस्य कुन्ते चासत्त्वेन लक्षणया तदुपस्थितेरसम्भवाद् विशेषणतया तदुपस्थितौ च पदार्थोंकदेशस्य क्रियान्वयानुपपत्तेश्चेति चेद्, न । विरुद्धविभक्त्यनवरुद्ध पदार्थयोरभेदान्वयव्युत्पत्त्या कुन्तविशिष्टपुरुषोपस्थितेरुक्तप्रकारेणानुपपत्तेः कुन्तविशिष्टपुरुषत्वस्य लक्ष्यतावच्छेदक लक्षणया तादृशविधिबाधकाभावाद् दण्डिनमानयेत्यादाविव विशिष्टस्य क्रियान्वयेनैव विशेषणगोचरतदन्वयवद्, लक्ष्यतावच्छेदकस्य शक्यस्य विशेषणतोपलक्षणताभ्यामेव चोपादानलक्षणलक्षणयोर्भेदः, कुन्तत्वेनैव रूपेण 'गङ्गायां घोषमत्स्यो', 'गां पश्य' इत्यादि स्थलों में जहाँ कि शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ दोनों में तात्पर्य रहता है वहाँ जैसे शक्ति और लक्षणा दोनों से दोनों अर्थों की उपस्थिति होती है; उसी तरह 'कुन्ताः प्रविशन्ति' यहां भी प्रवेशनक्रिया के साथ अन्वय की सम्भावना दोनों में तुल्य होने के कारण शक्ति और लक्षणा दोनों से शक्य और लक्ष्य दोनों अर्थों की उपस्थिति माननी चाहिए। लक्षणा से कुन्त अर्थ की उपस्थिति सम्भव नहीं हैं क्योंकि कुन्त में कुन्त-निरूपित संयोग सम्बन्ध नहीं माना जा सकता; ऐसी स्थिति में कुन्त अर्थ को लक्ष्यार्थं नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसमें शक्यार्थ- सम्बन्ध नहीं है। यदि यह कहें कि 'कुन्तधारी पुरुष-रूप लक्ष्यार्थ में विशेषण बनकर कुन्त अर्थ की भी उपस्थिति होती है इसलिए कुन्तार्थोपस्थिति भी हो ही जायगी, तो यह कथन युक्तिविरुद्ध है । विशेषणरूप में उपस्थित कुन्त अर्थ पदार्थकदेश (लक्ष्य-पदार्थ कुन्तधारी पुरुष का एक भाग) होगा, इसलिए पदार्थैकदेश का क्रिया में अन्वय नहीं होता । सिद्धान्त है कि “पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थकदेशेन " अर्थात् पदार्थ, पदार्थ के साथ अन्वित होता है; पदार्थैकदेश के साथ नहीं । इस लिए "ऋद्धस्य राजपुरुषः " यहाँ ऋद्धस्य का अन्वय "राजपुरुषः" पदार्थ के एकदेश 'राज्ञ: ' के साथ नहीं होता है। अतः लक्षणा से यदि कुन्तधारी पुरुष की उपस्थिति मानेंगे तो कुन्त का 'प्रवेशनक्रिया' में अन्वय नहीं होगा; इसलिए यहाँ शक्ति से कुन्त की और लक्षणा से 'धारी पुरुष" की प्रतीति माननी चाहिए यह भी नहीं कहना चाहिए । क्योंकि उक्त रीति से यदि कुन्त और धारी पुरुष दोनों पदार्थों को स्वतन्त्र मानकर शक्ति और लक्षणा से पृथगुपस्थिति मानेंगे तो उनमें अभेदान्वय होगा और तब कुन्ताभिन्न पुरुष इस प्रकार के अनन्वित अर्थ की उपस्थिति हो जायगी । अनन्वित इसलिए कि कुन्त और उसको हाथ में धारण करनेवाले पुरुष दोनों एक नहीं है । अभेदान्वय के लिए एक सिद्धान्त है कि 'विरुद्ध विभक्ति से अनवरुद्ध जो पदार्थ हैं उनमें अभेदसम्बन्ध हो "विरुद्ध विभक्त्यनवरुद्वयोः पदार्थयोरभेदान्वयः " । अर्थात् ऐसे पदार्थ जिनके प्रतिपादक पदों में विरुद्ध विभक्ति नहीं है; उन पदार्थों में अभेदान्वय ही हो। जैसे "नीलो घट:" में नील पदार्थ और घट पदार्थ दोनों के प्रतिपादक पदों नील और घट' में समान विभक्ति है - प्रथमा विभक्ति है, इसलिए यहाँ अभेदान्वय होकर "नीलाभिन्नः घटः " इस प्रकार का बोध होता है । इसी तरह 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में कुन्तपदार्थ और धारी पुरुषपदार्थ - प्रतिपादक शब्द कुन्त में विरुद्ध विभक्ति नहीं है इसलिए अभेदान्वय हो जायगा । फिर कुन्तविशिष्ट पुरुष इस प्रकार का बोध नहीं होगा । इसलिए कुन्त की शक्त्या और धारी पुरुष की लक्षणया उपस्थिति नहीं माननी चाहिए । कुन्त-विशिष्ट पुरुषत्व को लक्ष्यतावच्छेदक मानकर लक्षणा से तादृशविधि --- उस प्रकार की विधि अर्थात् क्रिया के अन्वय- में कोई बाधा नहीं आयेगी। जैसे 'दण्डिनम् आनय' में दण्ड विशिष्ट का क्रिया में अन्वय के द्वारा विशेषण दण्ड का भी अन्वय माना जाता है, उसी प्रकार कुन्त-विशिष्ट पुरुष का प्रविशन्ति में अन्वय होने पर कुन्त विशेषण का भी अन्वय माना जा सकता है । इस तरह उपादान-लक्षणा में लक्ष्यतावच्छेदक शक्य की विशेषण के रूप में प्रतीति होती है और लक्षण लक्षणा में लक्ष्यतावच्छेदक शक्यार्थ की उपस्थिति नहीं होती वह दूसरे का उपलक्षण बन जाता है । यही लक्षणा के पूर्वोक्त दोनों प्रकारों में भेद है ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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