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________________ द्वितीय उल्लास: घोषाद्याधारत्वासम्भवाद्, मुख्यार्थस्य बाधे, विवेचकत्वादी सामीप्ये च सम्बन्धे, रूढित: - तात्पर्यबलेन युगपन्नीरतीरोपस्थितावेकांशबोधे बाधप्रतिसन्धानकारणत्वकल्पने विनाशपथमन्यस्य प्रमाणयितुमशक्यत्वमेव । अपि च लक्षणया गङ्गातीरत्वेन तदुपस्थित्यभ्युपगमे गङ्गांशस्योपस्थितिस्तयाऽसम्भावितैव गङ्गानिरूपितसंयोगस्य गङ्गायामसत्त्वात्, गङ्गासम्बधित्वेनोपस्थिते गङ्गासम्बन्ध्यनुभवानुपपत्तेः, एकसम्बन्धिदर्शनेनापरसम्बन्धिस्मृतेः स्वसम्बन्धित्वादेविषयत्वे हस्तिदर्शनानन्तरं हस्तिपकस्मृतेरपि हस्तिसम्बन्धिविषयत्वापत्तश्च । न च गङ्गायाः शक्त्या तीरस्य लक्षणया तदुभयसंयोगस्य संसर्गतयोपस्थितिरिति वाच्यम्, युगपद् वृत्तिद्वयविरोधाद्, विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धप्रातिपदिकार्थद्वयेऽभेदान्वय एवेति व्युत्पत्तेश्च । अत एव राजपुरुष इत्यत्र राजपदे सम्बन्धिनि लक्षणा न सम्बन्धमात्रे । न च "दृष्ट्वा" पद में अन्वय की किसी प्रकार की अनुपपत्ति न होने से यहां लक्षणा नहीं होगी।* "तात्पर्यबलेन" इत्यादि (टीकार्थ)- ('गङ्गायां घोषः' यहां पर)। तात्पर्यबल से एक साथ नीर और तीर दोनों की उपस्थिति होने पर एक अंश (तीर मात्र) का बोध बिना शपथ के प्रमाणित नहीं किया जा सकेगा अर्थात् नीर और तोर दोनों की एक साथ उपस्थिति होने पर बोध केवल तीर का ही होगा, ऐसा कहा नहीं जा सकता। यदि लक्षणा के द्वारा गङ्गातीरत्वेन पदार्थोपस्थिति अर्थात् गङ्गातीररूप में पदार्थोपस्थिति मानें तो गङ्गा अंश की उपस्थिति लक्षणा के द्वारा असंभव ही होगी, गङ्गानिरूपित संयोग-सम्बन्ध गङ्गा में नहीं है । गङ्गानिरूपित-संयोग तीर में है, गङ्गा में नहीं। यदि गङ्गासम्बन्धित्वेन तीर की उपस्थिति माने तो गङ्गासम्बन्ध का अनुभव नहीं होगा। अर्थात् तीर गङ्गासम्बन्धी है ऐसा अनुभव होने पर भी गङ्गा और तीर के बीच जो सामीप्यसम्बन्ध है उसका अनुभव नहीं हो सकेगा । एक सम्बन्धी के दर्शन से अपर सम्बन्धी का स्मरण होता है. इसलिए गङ्गासम्बन्धित्वेन उपस्थिति मानने पर तीरसम्बन्धित्व को भी यदि स्मृति के कारण लक्षणा का विषय माना जा सकता है ऐसा कहें तो हाथी के देखने के बाद महावत (हस्तिपक) के स्मरण को भी हस्तिसम्बन्धिविषयत्व मानना पड़ेगा। यदि यह कहें कि गङ्गा की शक्ति से, तीर की लक्षणा से और गङ्गा तथा तीर दोनों के संयोग की संसर्गरूप से उपस्थिति हो जायगी, तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एक साथ दो वृत्तियों की उपस्थिति को विरुद्ध माना गया है। विरुद्ध विभक्ति से अनवरुद्ध (अयुक्त) दो प्रातिपदिकार्थों में अभेदान्वय ही मानना चाहिए, इस प्रकार की व्युत्पत्ति है। इसलिए 'राजपुरुषः' यहां राज पद में सम्बन्धी में लक्षणा करते हैं सम्बन्ध मात्र में लक्षणा नहीं करते । * नागेशभट्ट ने 'परमलघु मञ्जूषा' में 'अन्वयानुपपत्ति' के स्थान पर 'तात्पर्यानुपपत्ति' को लक्षणा का बीज माना है और उसका यह हेतु दिया है कि 'यदि अन्वयानुपपत्ति को लक्षणा का बीज माना जायगा तो 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इस प्रयोग में लक्षणा नहीं हो सकेगी। कोई व्यक्ति अपना दही बाहर रखा हुआ छोड़कर किसी काम से तनिक देर के लिये कहीं जा रहा है। वह चलते समय अपने साथी से कहता है कि 'जरा कौओं से दही को बचाना' । इसका अभिप्राय केवल कौओं से बचाना ही नहीं है अपितु कौए, कुत्ते आदि जो कोई दही को बिगाड़ने या खाने का प्रयत्न करें, उन सबसे दही की रक्षा करना है। यह अभिप्राय 'काक' पद की 'दध्यपघातक' अर्थ में लक्षणा करने से ही पूरा हो सकता है, अन्यथा नहीं। परन्तु 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इस प्रयोग में 'अन्वयानुपपत्ति' नहीं है। सब पदों का अन्वय बन जाता है इसलिये यदि अन्वयानुपपत्ति को ही लक्षणा का बीज मानें तो यहाँ लक्षणा का अवसर ही नहीं आता । इसलिये नागेशभट्ट ने अन्वयानुपपत्ति' के स्थान पर 'तात्पर्यानुपपत्ति' को लक्षणा का बीज माना है। अन्वय में बाधा न होने पर भी 'काक' पद का मुख्यार्थ मात्र लेने से वक्ता के तात्पर्य की उपपत्ति नहीं होती है इसलिये लक्षणा करना आवश्यक हो जाता है। अतः 'तात्पर्यानुपपत्ति' को ही लक्षणा का बीज मानना चाहिये, यह नागेशभटट का अभिप्राय है। -सम्पादक
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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