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________________ द्वितीय उल्लासः [सू० ११ ] स मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते ॥ ८ ॥ स इति साक्षात्सङ्केतितः । प्रस्येति शब्दस्य । ५३ कल्पनीयत्वात्, सामान्यलक्षणाश्रयणाच्च न व्यक्तिशक्तिपक्षोक्तदोषः, तदादिपदे धर्मान्तरविशिष्टे शक्तिग्रहेण धर्मान्तरविशिष्टपदार्थस्य शाब्दबोधविषयतया बुद्धिस्थत्वस्याप्रकारतया च समानप्रकार - कत्वस्यानियामकत्वात्, बुद्धिस्थत्वेन सकलप्रकारोपस्थिति विना तेषु शक्तिग्रहासम्भवेन जातिशक्तावपि तदाश्रयणावश्यकत्वादिति युक्तमुत्पश्यामः । ननु वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयाः पदार्था इति विभागोऽनुपपन्नः, मुख्यत्वेन प्रसिद्धस्य तुरीयस्यापि भावाद् अत आह— मुख्य इति । स इत्यवधारणगर्भं पदम् कुत एतद् ? इत्याह- तत्रेति । अस्य शब्दस्य यत्रार्थेऽभिधारूपो व्यापारः स मुख्ये उच्यते इत्यर्थः । यद्वाऽभिधायक लक्षणमुक्त्वाऽभिधा लक्षणमाह-तत्र ेति, मुख्यंव्यापारत्वं च तल्लक्षणम्, मुख्यत्वं च वृत्त्यन्तरानुपजीवकत्वमिति प्राञ्चः । वयं तु ननु यद्युपाधावेव शक्तिस्तदा कथं व्यक्तिभानं ? तद् भानस्य भट्टमतवदानुमानिकत्वेऽर्था (पटादि) प्रकारतया उपस्थित नहीं होगा। इस तरह समान प्रकारकत्व को नियामक नहीं माना जा सकता । बुद्धिस्थत्वेन सकल प्रकार की उपस्थिति के बिना उनमें शक्तिग्रह असम्भव हो जायगा इसलिए जब जातिपक्ष में भी सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति मानना आवश्यक ही है तो व्यक्तिवाद में भी उसका सहारा लेना कोई दोष नहीं है । श्रभिधा-निरूपण [सूत्र ११] - यह उपर्युक्त चतुविध सङ्केतित अर्थ ही वह अर्थ है जिसे ( शब्द का) मुख्य अर्थं कहा करते हैं और इस चतुविध सङ्केतित अर्थ के अवबोधन में शब्द का जो व्यापार है वह 'अभिधा' (व्यापार अथवा अभिधाशक्ति) कहलाता है । इस कारिका में 'सः' का अभिप्राय है 'साक्षात् सङ्केतित रूप अर्थ' और 'अस्य' का अभिप्राय है 'शब्द का' । 'ननु वाच्यलक्ष्यव्यङ्ङ्घाः' इत्यादि ( टीकार्थ ) - पदार्थों अर्थात् शब्दार्थो का विभाग- वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग्यरूप में करना अनुपयुक्त है क्योंकि मुख्यार्थरूप में प्रसिद्ध अर्थं का कोई चौथा विभाग भी हो सकता है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए लिखते हैंस मुख्योर्थ:- यहाँ 'स' यह पद निश्चयार्थ को लिए हुए है। यह कैसे ? इसे सूचित करने के लिए 'तत्र' लिखा गया है । इस तरह इसका अर्थ हुआ कि जिस शब्द का जिस अर्थ में अभिधारूप व्यापार है वह मुख्य अर्थ है क्योंकि अभिधाव्यापार शब्द का मुख्यव्यापार है अतः उस मुख्यव्यापारके कारण प्रकट होने वाला अर्थ मुख्यार्थ है । इस तरह वाच्यार्थ से अतिरिक्त कोई मुख्यार्थ नहीं है जिससे कि शब्दार्थ का मुख्यार्थं नामक चौथा भेद माना जाय । अथवा यह भी माना जा सकता है कि - 'पूर्व कारिका में अभिधायक के लक्षण कहने के बाद इस कारिका अभिधा (व्यापार) का लक्षण बताते हैं ।' मुख्य व्यापारत्व ही अभिधा का लक्षण है अर्थात् जो मुख्य व्यापार है उसे ही अभिधा कहते हैं । अभिधा व्यापार मुख्य इस लिए है कि वह किसी और वृत्ति का आश्रय लेकर नहीं जीती है। ऐसा प्राचीनों का मत है । हम तो - यदि व्यक्ति की उपाधि में ही शक्ति है तब व्यक्ति का बोध कैसे होगा ? व्यक्ति के भान को यदि भट्ट मत की तरह आनुमानिक या अर्थापत्ति- लभ्य मानें तो आक्षिप्त या अनुमानलभ्य का शब्दबोध में अन्वय
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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