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________________ द्वितीय उल्लासः पाकत्वादि । बालवृद्धशुकाधुदीरितेषु डित्थादिशब्देषु च, प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु डित्थाद्यर्थेषु वा डित्थत्वाद्यस्तीति सर्वेषां शब्दानां जातिरेव प्रवृत्तिनिमित्तमित्यन्ये ।। विक्लित्यादावोदनरूपेष्टसाधनत्वस्य प्रवृत्तेश्चासम्भवाच्च । डित्याद्यर्थेषु वेति बाल्यादिना भिन्ने डित्ये पिण्डे कालान्तरे स एवायं डित्थ इति प्रत्यभिज्ञया धर्म्यभेदविषयताबाधे जातिविषयत्वेन तद्गतजातिसिद्धी तस्या एव डित्थपदशक्यतेति भावः । अक्षरार्थस्तु इवार्थेन वाशब्देनाप्यर्थक-चशब्दविनिमयाद् बालवृद्धशकोदीरितेषु डित्थादिशब्देष्विव प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु डित्थाद्यर्थेष्वपि डित्थादित्वमस्तीति । क्षणोऽत्र स्थूलः। वयं तु-वाशब्दो विकल्पे न त्विवार्थे, तेन वक्तशरीरजन्यतावच्छेदकडित्थादिशब्दवृत्तिजातेवर्तमान में हो तो लट् लकार हो । मण्डनाचार्य के मत में क्रिया का अर्थ फल मात्र है। इसलिए फल के वर्तमान र पर लट् लकार का प्रयोग होगा और व्यापार के वर्तमान रहने पर भी लट् लकार नहीं होगा। स्पन्दजन्य-संयोगरूप फल के आश्रय होने के कारण 'आकाशो गच्छति' ऐसा प्रयोग 'रथो गच्छति' की तरह होने लगेगा एवं स्पन्दजन्य-विभागाश्रय होने के कारण 'आकाशः पतति' और "आकाशस्त्यजति" इत्यादि प्रयोग होने लगेंगे। . "ओदनकामः पचेत" अर्थात् भात के इच्छुक को चाहिए कि वह पाक करे, ऐसा प्रयोग अब नहीं होगा; क्योंकि मण्डनाचार्य के मत में 'पचेत' में पच का अर्थ है 'विक्लित्तिरूप फल और लिङ् लकार का अर्थ है प्रवर्तना । इस तरह इस वाक्य का अर्थ होगा विक्लित्तिरूप फल में प्रवृत्त होना चाहिए और 'ओदनकामः' का वस्तुतः अर्थ है ओदन चाहने वाला। इस तरह इस वाक्य का यह अर्थ कि 'ओदन चाहने वाला विक्लित्ति में प्रवृत्त हो' असंगत हो जायगा। विक्लित्ति आदि में ओदनरूप इष्टसाधनत्व और प्रवृत्ति दोनों की गुंजाइश नहीं है। इसी तरह डिस्थादि में भी वर्तमान डित्थत्वसामान्य को ही शक्यार्थ मानना चाहिए; यही दिखाते हुए कहते हैं कि 'बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था आदि के कारण डित्थ शरीर में भेद होनेपर "डित्थः" इस प्रकार का प्रयोग और बोध जिस कारण से होता है वह डित्थत्वजाति ही है और वर्षों के बाद देखने पर (भेद होने पर भी) "स एवायं डित्थः" यह वही डित्थ है इस प्रत्यभिज्ञा के कारण धर्मी के एकमात्र न होने की बुद्धि का बाध होने पर डित्थ शब्द भी जाति का विषय बना और उसमें जो जाति सिद्ध हो गयी उसी डित्थत्व जाति को डित्थपद का शक्यार्थ माना जायगा। मूल में लिखित वाक्य का अर्थ करते समय इव (सदृश) अर्थवाले 'वा' शब्द का और 'अपि' अर्थवाले 'च' शब्द का स्थान विनिमय करके "बालवृद्ध शुकाधुदीरितेषु डित्यादिशब्देष्विव प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु डित्थाद्यर्थेष्वपि डित्यत्वाद्यस्ति" इस प्रकार का वाक्य बनाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि 'इव' के अर्थ में 'वा' शब्द भी संस्कृत में प्रयुक्त होता है । यहाँ 'वा' शब्द का अर्थ 'इव' मानना चाहिए। और 'च' शब्द का अर्थ अपि है ही, दोनों शब्दों के स्थान का परिवर्तन करके यह अर्थ होगा कि-बाल, वृद्ध और तोते के द्वारा उच्चारित डित्यादि शब्दों की तरह प्रतिक्षण बदलते हुए डित्यादि अर्थ में भी डित्थत्वादिक धर्म मानना ही चाहिए। अन्यथा "डित्थः डित्यः” इत्यादि समान शब्द के प्रयोग और समानबोध के लिए कोई आधार ही नहीं रह जायगा। "प्रतिक्षणं" यहां क्षण स्थूल लेना चाहिए क्योंकि डित्थ में एक क्षण में जो परिवर्तन हुआ है वह जाना नहीं जा सकता। 'वयं तु इत्यादि (टीकार्थ) टीकाकार पूर्वोक्त पङ्क्ति की नूतन व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि 'हम तो इस पंक्ति की व्याख्या इस तरह करते हैं। यहाँ 'वा' शब्द विकल्पार्थ में ही प्रयुक्त हुआ है, अपने 'अप्रसिद्ध' अर्थ इवार्थ में नहीं। अर्थात् मूल
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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