SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रितीवलासः द्वितीयो गुणः । शुक्लादिना हि लब्धसत्ताकं वस्तु विशिष्यते। साध्यः पूर्वापरीभूतावयवः क्रियारूपः । मुक्तं गोत्वाभिसम्बन्धात्तु गौरिति, गोत्वप्रयुक्तगोव्यवहारमात्रविषय इत्यर्थः, तथा च नाध्याहारः नागवि गोव्यवहारो (?') न चागव्यगोव्यवहारस्यानुपपत्तिरिति प्रतिभाति । लब्धसत्ताकं जात्यादिना विशिष्यते सजातीयाद् व्यवच्छिद्यते शुक्ला दिनेत्यर्थः । न च यथा गोत्वादिना लब्धसत्ताकं वस्तु नील: शुक्ल इत्यादिना गुणेन व्यवच्छिद्यते तथा शुक्लादिना लब्धसत्ताकं वस्तु 'गौहंस' इत्यादि जात्याऽपि विशिष्यत इत्यतिव्याप्तिरिति वाच्यम्, क्षणमगुणो भाव इत्यभ्युपगमाद् आद्यक्षणे गुणवत्तया लब्धसत्ताकत्वाभावात् । पूर्वापरीभूतेति । पूर्वापरीभूताः क्रमिका अवयवा एकदेशा अधिश्रयणावतारणादयो यत्र तादृशी क्रिया तव्र पस्तदात्मक इत्यर्थः, वस्तुतः पूर्वापरीभूतयाऽवयवक्रियया एकदेशक्रियया रूप्यते - ऐसी स्थिति में अध्याहार की आवश्यकता नहीं है क्योंकि गोभिन्न में गोव्यवहार नहीं होगा और 'अगो' में "अगो" व्यवहार की अनुपपत्ति नहीं हुई। ___ गुण की परिभाषा को लक्ष्य में घटाते हुए वृत्तिकार ने लिखा हैं-'शुक्लादिना हि लब्धसत्ताकं वस्तु विशिष्यते' शुक्ल आदि गुणों के कारण से ही सत्ता प्राप्त वस्तु (अपने सजातीय अन्य पदार्थों से विशेषता को) भिन्नता को प्राप्त होती है । गो के साथ शुक्ल विशेषण अन्य गौओं की अपेक्षा उसकी विशेषता या भेद को सूचित करता है। इसमें लब्धसत्ताक के साथ जात्यादिना यह जोड़ना चाहिए । 'विशिष्यते' का अर्थ है सजातीय पदार्थों से पृथक करना अर्थात् जाति के कारण व्यवहार में अपनी स्थिति बनाये हुए घटादि पदार्थों का परस्पर भेद करनेवाला विशेषण गुण कहलाता है। जैसे गोत्वादि जाति के कारण व्यवहार प्राप्त वस्तु (गो) नील, शुक्ल आदि गुणवाचक विशेषणों से सजातीय गायों से अलग की जाती है; उसी तरह शुक्लादि गुण के कारण व्यवहार में आयी हुई शुक्ल वस्तु 'गो' 'हंस' आदि के कारण सजातीय शुक्ल वस्तुओं से अलग की जाती है । इस तरह जाति के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष होने की शङ्का नहीं करनी चाहिए क्योंकि न्यायशास्त्र का सिद्धान्त है कि उत्पन्न द्रव्य एक क्षण तक अगुण रहता है, इस लिए आदि क्षण में गुणवान् न होने के कारण शुक्लादि शब्द व्यवहार में लब्धसत्ताक नहीं है । जाति का तो अर्थ ही है कि 'जननेन प्राप्यते' जन्म के साथ ही जो प्राप्त हो जाती है उसे जाति कहते हैं। इस तरह जाति सर्वदा रहती है इसलिए व्यवहार में उसकी सत्ता तीनों कालों में है। वस्तु धर्म के दो भेदों-सिद्ध और साध्य-में से सिद्ध का पूर्णतः विश्लेषण करने के बाद साध्य का विश्लेषण करते हुए वृत्ति में लिखते हैं-'साध्यः पूर्वापरीभूतावयवः क्रियारूपः । साध्य का पर्याय है क्रिया। चावल पकाते समय 'पचति आदि शब्द के प्रयोग से जिस आगे पीछे किये जानेवाले क्रिया-कलाप (चूल्हा फूकने, बर्तन रखने आदि क्रिया समूह) की प्रतीत होती है, वह साध्य है । वही कहते हैं-पूर्वापरीभूताः-पूर्व और अपरभाव (पहले और पीछे होने वाले) क्रमिक अवयव (एक देश) अधिश्रयण चूल्हे पर रखने से लेकर अवतारण उतारने तक की क्रियारूप शब्द, साध्य हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त शब्द 'पूर्वापरीभूतावयव" में बहुव्रीहि समास माना गया है, पूर्वापरीभूता अवयवा यस्य (क्रियारूपस्य) सः । पूर्वापरीभूताः में पहले द्वन्द्व-समास और फिर च्चि प्रत्यय है। पूर्वे च अपरे चेति पूर्वापरे, अपूर्वापरे पूर्वापरे सम्पद्यन्ते स्म इति पूर्वापरीभूताः । १. अत्र पाठो न समीचीनः । मूलप्रती लेखने विकृति गत इति प्रतीयते।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy