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________________ द्वितीय उल्लासः २६ इदं तु चिन्त्यते–'अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य' इति कोशकाराद्यभिप्रायस्य सङ्केतत्वे कोशकदिर्नानात्वेन लक्षणाननुगमः, न च कोशक देन लक्षणे प्रवेश इति वाच्यम्, गङ्गापदोच्चारयितुरिच्छाविषये शैत्यादावपि गङ्गापदस्थ वाचकतापत्तेः, न चात एव साक्षादिति तद्विशेषणम्, शेत्यादौ त शक्यं लक्ष्यं च बोधयित्वा शैत्यं बोधयत्विति परम्परया तदभिप्रायो न साक्षाद् अत एव न लक्ष्यतीरादावपि तस्य वाचकत्वमिति वाच्यम्, पुमिच्छाया नियन्तुमशक्यत्वात्, किञ्च इदन्त्वशब्दत्वबोद्धव्यत्वतदाश्रयादावपि गङ्गादिपदस्य वाचकत्वप्रसङ्गः, तेषामपि ताशेच्छाविषयत्वात् प्रवाहमात्र विषयताया अपर्याप्तेः । न च तादृशसङ्केतग्रहो यदर्थविषयकशाब्दबोधे कारणं तदर्थे 'स वाचक' इत्युक्तेर्बोद्धव्यत्वादिविषयकशाब्दबोधं प्रति तादृशसङ्केतग्रहस्याकारणतया नातिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, गङ्गायां घोषमत्स्या वाचक माने जायेंगे; परन्तु हैं ये उन गुणों के व्यंजक । अतः अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। इसीलिए संकेतित पद का निवेश किया गया । निवेश करने पर दोष नहीं हुआ क्योंकि माधुर्यादि में इनका संकेत नहीं किया गया है। (यहाँ) यह विचार प्रस्तुत करते हैं कि-"अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्यः" इस शब्द से यह अर्थ जानना चाहिए इस रूप में प्रतिपादित कोशकारादि के अभिप्राय को संकेत स्वीकार करें तो कोशकार के अनेक होने के कारण संकेत का पूर्वोक्त लक्षण (वस्तु का) ठीक ज्ञान नहीं करा सकेगा। इस लिए कोशकारादि का लक्षण में समावेश नहीं करना चाहिए। कोशकारादि का लक्षण में समावेश नहीं करने पर भी, जहाँ गङ्गा पद का उच्चारण करनेवाला चाहता है कि यह पद शैत्य-पावनत्वादि का भी बोध कराये वहाँ शैत्यादि को उच्चारण-कर्ता की इच्छा का विषय होने से गङ्गा पद को शैत्यादि का वाचक मानना पड़ेगा इस तरह पूर्वलक्षण में अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि इसी दोष के निवारण के लिए "साक्षात्" विशेषण का निवेश कर देंगे अर्थात "अस्मात् शब्दात साक्षादयमों बोद्धव्यः" ऐसा निवेश करने पर कोई दोष नहीं होगा; क्योंकि सभी वक्ता यही चाहते हैं कि गङ्गा पद शक्यार्थ (प्रवाह) और लक्ष्यार्थ (तीर) अर्थ को बताकर बाद में शैत्य अर्थ का बोध कराये, इसलिए शैत्यादि अर्थ के बोधन की इच्छा परम्परा-सम्बन्ध से सिद्ध होती है, साक्षात् सम्बन्ध से नहीं। इसीलिए लक्ष्यार्थ तीरादि के प्रति भी गङ्गा शब्द वाचक नहीं होगा। किन्तु इस तरह पूर्वोक्त लक्षण को निर्दोष बताने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि (आत्मा की) इच्छा पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। इच्छा को किसी सीमा में सीमित नहीं कर सकते हैं । इसलिए कुमारसम्भव में की पार्वती कहती है "मनोरथानामगतिविद्यते' । ऐसी स्थिति में कोई वक्ता ऐसी भी इच्छा कर सकता है कि "गङ्गापदं शैत्यमर्थ बोधयतु" ऐसी स्थिति में संकेत का लक्षण बहाँ घट जायगा और अतिव्याप्ति दोष हो जायगा । "अस्माच्छब्दादयमों बोद्धव्यः" इस प्रकार की इच्छा में 'अस्मात्' में इदम् सर्वनामत्व का, शब्दात में शब्दत्व का और बोद्धव्यः में बोद्धव्यत्व का भी समावेश हो गया है इसलिए इनके आश्रयादि में गङगा शब्द का वाचकत्व मानना पड़ेगा जो कि गलत है। तात्पर्य यह है कि "अस्माद् शब्दादयमर्थो बोद्धव्यः" इस प्रकार की इच्छा के विषय को यदि वाचक मानेंगे तो इस इच्छा में समाविष्ट इदमर्थ-शब्द शब्दार्थ और बोद्धव्य शब्दार्थ का वाचकत्व गङगा शब्द में घटित हो जायगा, क्योंकि वे भी उस प्रकार की इच्छा के विषय हैं। प्रवाह मात्र में ही वह विषयता पर्याप्त नहीं है। यदि यह कहें कि उस प्रकार का संकेतग्रह जिस अर्थ के शाब्दबोध का कारण हो; उस अर्थ के प्रति वह वाचक है इस तरह बोद्धव्यात्वादि अर्थ के शाब्दबोध के प्रति गंगा शब्द का संकेत नहीं है इसलिए दोष नहीं होगा, तो ठीक है परन्तु "गङ्गायां घोषमत्स्यौ स्तः" यहाँ गङ्गा शब्द के दो अर्थ तीर और पूर के उभयविषयक ज्ञान
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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