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________________ द्वितीय उल्लास: विषयस्य साक्षात्सङ्केतस्य ग्रहः प्रतिपत्तिजनकः स तदा तस्य वाचक इति लक्षणवाक्यार्थः, ग्रहश्च सङ्केतत्वप्रकारको यथार्थश्च विवक्षितः, स्वपरलाक्षणिके तत्त्वेन तद्ग्रहो न कारणम्, अपि तु शक्यसम्बन्धत्वेन ग्रह इति न तत्राऽतिव्याप्तिः, अपभ्रंशे च सङ्केतभ्रमः कारणम् न तु तत्प्रमेति न तत्राप्यतिव्याप्तिः । 'यदा तदे'ति करणाच्च नाजहत्स्वार्थायां न चाभिधामूलव्यञ्जके सा । यदर्थविषयेतिकरणाच्च न गङ्गायां घोषमत्स्यावित्यत्र तीरेऽपि वाचकत्वप्रसङ्गः । न च यत्त्वस्यैकस्याभावान्न लक्षणानगमः, कस्मिन्नर्थ कि वाचकमिति शिष्यजिज्ञासानिवारकस्याननुगतस्यंव लक्ष्यत्वाद, अन्यथा सर्वस्यव यत्किञ्चिदवाचकत्वेन वाचकादीनां लाक्षणिकादिभेदो न स्यादिति यूक्तमुत्पश्यामः । ननु सङ्केतज्ञानस्य यहाँ 'ग्रह' अर्थात्-बोध, संकेतत्व प्रकारक और यथार्थ लिया गया है "गङ्गायां मीनघोषौ" यहाँ जहाँ स्व (वाच्यार्थ प्रवाह) के साथ लक्ष्यार्थ तीर भी है, संकेतत्वेन तीररूप लक्ष्यार्थ की उपस्थिति नहीं होती है; किन्तु शक्यसम्बन्धत्वेन शक्यार्थप्रवाह के साथ सामीप्य-सम्बन्ध होने के कारण उसका 'ग्रहण होता है, इसलिए वहाँ अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ। अपभ्रंश 'गाय' आदि शब्द की अर्थोपस्थिति होने का कारण सङ्केत-भ्रम माना गया है इसलिए वहां अर्थग्रह प्रमा नहीं है। इसलिए वहाँ भी अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ। (लक्षण में) 'यदा' और 'तदा' का निवेश किया गया है इसलिए अभिधामूलक व्यञ्जक “भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोः" इत्यादि स्थल में वाचक का लक्षण नहीं घटा और न 'गङ्गायां घोषमत्स्यौ यहाँ तीरार्थोपस्थापन के कारण गंगाशब्द वाचक माना गया। प्रवाहापस्थापन काल में उस (गङ्गा शब्द) से तीर अर्थ की उपस्थिति नहीं होती है। इसी तरह 'अजहत-स्वार्था' लक्षणा में (जहाँ मुख्य अर्थ से युक्त लक्ष्य अर्थ की उपस्थिति होती है) भी वाचक का लक्षण नहीं घटा क्योंकि जिस समय में वहाँ लक्ष्य अर्थ की उपस्थिति होती है उस समय के पूर्वलक्षण में ही संकेतित अर्थ की उपस्थिति हो जाती है। जैसे 'सार्षपं नारिकेलम् ऐङ्गुदञ्चेत्यादीनि तैलानि हेमन्ते सुखानि' यहाँ तैल पद से तिल के तथा सरसों आदि अन्य वस्तुओं के तेलों का बोध होता है। उस बोध में कालभेद है; तिल के बोध-काल में अन्य तेलों का बोध नहीं है। इसलिए अन्य तैलरूप लक्ष्यार्थ ग्राहक शब्दों में वाचक का लक्षण नहीं घटा। . . यद्यपि अमिधामूलक ध्वनिस्थल में, अजहत्स्वार्था लक्षणा में और "गङ्गायां घोषमत्स्यौ स्तः' यहाँ केवल वाच्यार्थ की ही उपस्थिति नहीं है इसलिए वाचक के लक्षण में दिये गये दोष नहीं होंगे; ऐसी शडा उपस्थित होती है। अर्थात् वाचक शब्द उसे कहेंगे जहाँ केवल वाचक का लक्षण घटेगा, जिस शब्द में वाच्य और लक्ष्य दोनों अर्यों की उपस्थापन-शक्ति होने के कारण दोनों के लक्षण घटते हैं, उसे वाचक नहीं माना जायगा। इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि-शिष्य यह नहीं जानता कि किस अर्थ में कौन वाचक है उसके ज्ञान के लिए ही लक्षण बनाया गया है । अतः शिष्य की 'किस अर्थ का कौन शब्द वाचक है ?' इस जिज्ञासा की निवृत्ति के लिए बनाये गये लक्षण का लक्ष्य पूर्वनिश्चित वाचक शब्द नहीं हो सकता। अर्थात् शिष्य को वाचक का पहले से ज्ञान नहीं है। वह तो उस लक्षण को माध्यम बनाकर ही वाचक का ज्ञान करेगा। इसलिए वह लक्षण जहाँ घट जायगा, उसे वह वाचक मान लेगा। इसलिए वाचक के लक्षण में 'यदा' 'तदा' आदि पदों का निवेश करना आवश्यक है। यदि पूर्वोक्त पदों का निवेश नहीं किया जायगा तो सभी पदों में किसी न किसी अर्थ की वाचकता होने के कारण वाचक और लाक्षणिक पदों का भेद नहीं दिखाया जा सकेगा। पूर्वोक्त निवेश करने पर यह दोष नहीं हुआ, क्योंकि गङ्गा शब्द प्रवाह अर्थ के उपस्थापन काल में वाचक है और तीर अर्थ के उपस्थापन काल में लाक्षणिक । संकेतज्ञान को (शाब्द-बोध का) हेतु मानने में प्रमाण का अभाव नहीं है। क्योंकि लोक-व्यवहार में बिना संकेत के शब्द से अर्थ की प्रतीति न होने से संकेत की सहायता से ही शब्द अर्थविशेष का प्रतिपादन करता है (यह सिद्धान्त निश्चित होता है।) इसलिए जिस शब्द का जिस अर्थ में अव्यवधान से संकेत का ग्रहण होता है, वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है। यही बताते हुए लिखते हैं :- "अगृहीतसङ्केतस्य" । इस तरह 'अन्वय-व्यतिरेक'
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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