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________________ २४. काव्यप्रकाशः एवात्र सङ्गतिरिति द्रष्टव्यम् । स्वरूपं लक्षणम् । साक्षादिति । अभिधत्ते प्रतिपादयतीत्यर्थः । न त्वभिधया प्रतिपादयतीति, वाचकशब्दव्यापारस्याभिधात्वेनान्योन्याश्रयाद्, विशेषणान्तरवैयर्थ्याच्च, एतावन्मात्र च चेष्टायां लाक्षणिकशब्दे चातिव्याप्तम्, अतः सङ्केतितमिति । अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इत्येवंरूपस्य कोशकाराभिप्रायात्मकसङ्केतस्य तत्राभावाद्, ईश्वरसङ्केतपरत्वे वक्तृयदृच्छाशब्देऽव्याप्तेः न चैवं साक्षात्पदवैयर्थ्यम्, “ यन्नामा यत्र चैत्यादिविषयोऽपि स तादृश" इति व्यव हितसङ्केतविशेषविषयो इस पक्ष में बिसिनीपत्र को मरकत-भाजन कहने से यह प्रतीत होता है कि उस ( वियोगिनी) के स्पर्श से वह (बिसिनी - पत्र ) अति कठोर हो गया था। शरीर को शङ्ख- शुक्ति कहने से प्रतीत होता है कि विरहाधिक्य के कारण शरीर पाण्डु बन गया था इस उपमा व्यङ्गय पाण्डुता से यहाँ विप्रलम्भातिशय व्यङ्गय है । क्रमशः वाचक आदि (तीन प्रकार के शब्दों) के स्वरूप का निरूपण करते हैं । यहाँ क्रमशः का अर्थ है उद्देश्य क्रम से । वाचकादि के स्वरूप के निरूपण में अर्थ-विषयक जिज्ञासा प्रतिबन्धक हो सकती थी । परन्तु अर्थ का निरूपण कर देने के बाद अर्थ-विषयक जिज्ञासा नहीं रही। इस तरह यहाँ अर्थ के बारे में उठनेवाले जिज्ञासारूपी प्रतिबन्धक का निवारणावसर हो संगति है । 'स्वरूप' लक्षण को कहते हैं । वाचक का लक्षण देते हुए कहते हैं : जो (शब्द) साक्षात् संकेतित अर्थ को बताता है; वह वाचक शब्द कहलाता है। लोक व्यवहार में बिना संकेतग्रह के शब्द से अर्थ की प्रतीत नहीं होती है । इसलिए संकेत की सहायता से ही शब्द अर्थ-विशेष का प्रतिपादन करता है । और इसीलिए जिस शब्द का जहाँ जिस अर्थ में अव्यवधान से संकेत का ग्रहण होता है, वह (शब्द) उस (अर्थ) का वाचक माना गया है । मूल में आये हुए शब्द 'अभिधत्ते' का अर्थ है 'प्रतिपादयति' अर्थात् बोध कराता है. बताता है इत्यादि अर्थात् ""अभिधा से प्रतिपादित होता हैं' ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष होगा । वाचक शब्द के व्यापार को अभिघा कहते हैं । शब्द जब अभिधा व्यापार से अर्थ विशेष को प्रकट करेगा, तब उसका व्यापार अभिधा कहलायेगा । इस तरह अन्योन्याश्रय- दोष हो जायगा । यदि " अभिधत्ते" का अर्थ अभिधा व्यापार के द्वारा बताता है; यह करें तो पूर्वोक्त अन्योन्याश्रय-दोष के अतिरिक्त एक दोष यह भी होगा कि कारिका में प्रयुक्त 'साक्षात् सङ्केतितम्' यह विशेषण व्यर्थ हो जायगा । अभिधा व्यापार से प्रतिपादित जो अर्थ होगा, वह साक्षात् संकेतित ही होगा; फिर वह विशेषण लगाना व्यर्थ होगा, क्योंकि व्यावृत्ति के लिए विशेषण का प्रयोग होता है । 'साक्षात् सङ्केतितम्' से लक्ष्यादि अर्थों की व्यावृत्ति अभीष्ट है; वह तो 'अभिधत्ते' के अर्थ अभिधा द्वारा प्रतिपादित यह अर्थ करने से ही हो जायगा । यदि अभिधत्ते का अर्थ प्रतिपादयति 'बोधयति' बताता है इतना ही करें तो "साक्षात् सङ्केतितम्" अर्थ के इस विशेषण के अभाव में 'अर्थम् यः अभिधत्ते स वाचक:' अर्थात् जो शब्द अर्थ का बोध कराये उसे वाचक कहते हैं, इतना-सा लक्षण करनेपर लाक्षणिक शब्द में भी लक्षण घट जायेगा; इसीलिए वह विशेषण सार्थक होगा । " सङ्केतितम् " इस विशेषण के रहने पर लाक्षणिकशब्द में अतिव्याप्तिदोष नहीं हुआ; क्योंकि गङ्गा शब्द का 'सङ्केत' तीर अर्थ में नहीं है । इसलिए तीरार्थं गंगा शब्द का संकेतित अर्थ नहीं हुआ । 'अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य:' इस शब्द . से. यह अर्थ समझना चाहिए इसका तात्पर्य है कि कोशकार ने जहाँ जैसा संकेत दिया है; वही अर्थ संकेतित अर्थ माना जायगा । नैयायिक लोग यद्यपि 'अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इत्याकारा ईश्वरेच्छा शक्तिः' अर्थात् इस शब्द से यह अर्थं समझना चाहिए इस प्रकार की ईश्वरेच्छा को संकेत मानते हैं, परन्तु हमने कोशकार के अभिप्राय को ही संकेत माना है; इसका कारण यह है कि यदि ईश्वरेच्छा को संकेत मानेंगे तो यदृच्छा शब्द ( मानव की मर्जी से रखे गये डित्थ डवित्थ आदि) में उस प्रकार की ईश्वरेच्छा न होने से अव्याप्ति दोष हो जायगा । अर्थात् यदृच्छा शब्द में वाचक का लक्षण नहीं घटेगा ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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