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________________ व्यङ्ग्यस्य यथा उय' णिच्चलणिप्पंदा भिसिणीपत्तम्मि हरेइ बलाया। णिम्मलमरगप्रभाअरणपरिट्ठिया संखसुत्ति व्व ॥८॥ ततीयान्ततयोपदय॑ त्वयेत्यस्य विशेषणतया प्रदर्शितमित्यस्मन्मनीषोन्मिषति । तेन चेति कामूकविषयं कामुकनिष्ठं यत् सापराधत्वं तत्प्रकाशनं तत्प्रतीतिरित्यर्थः । प्रतीतेरेव फलत्वेन व्यङ्गयत्वं न तु तद्विषयस्य, शैत्यपावनत्वादौ च व्यङ्गयत्वव्यवहारो व्यङ्गयायाः प्रतीतेविषयतया भाक्तः, शक्यस्य ज्ञानस्य विषये शक्यत्वव्यवहारवदिति ज्ञापयितुं प्रकाशनपदोपादानम्, वस्तुतः कामुकविषयेति प्रकाशनस्यैव विशेषणं, प्रकाशनं च ज्ञापनं तथा च नायमन्यत्रानुरक्तो वृथैव भवत्या मानवत्याऽयमुपतापितोऽनुनयमहतीति त्वद्वचनेनानुनयार्थ प्रेषितां त्वामेवोपभुक्तवानिति त्वयेदानीमपि चेतितव्यमिति व्यङ्गयत्वेन च मयाऽतः परमस्य मुखमपि न विलोकनीयम्, मदनुनयार्थं त्वयाऽपि न यतनीयमिति व्यङ्गयान्तरमपि कटाक्षितमिति वयं विलोकयामः। 'उयत्ति'-पश्य निश्चलनिःस्पन्दा बिसिनोपत्रे राजते बलाका। निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शङ्खशुक्तिरिव ॥८॥ __ 'उयत्ति पश्येत्यर्थे देशीयवचनं, चलनं शरीरक्रिया, स्पन्दस्तदवयवक्रिया, वस्तुतो निश्चल'कामुकनिष्ठ' कामुक में स्थित यत्-जो, सापराधत्व अर्थात् अपराध है, तत् प्रकाशनम्-उसकी प्रतीति (व्यङ्गय है), प्रतीति ही फल है इसलिए (फलवती लक्षणा में) प्रतीति को व्यङ्गय मानना चाहिए प्रतीति के विषय (अपराध को, व्यङ्गय नहीं मानना चाहिए। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि प्रतीति ही व्यङ्गय है, विषय व्यङ्ग्य नहीं है तो "गङ्गार्या घोषः” में शीतत्वातिशय और पावनत्वातिशय को जो कि प्रतीति का विषय ही है व्यङ्ग्य मानने की परम्परा कैसे चली आ रही है ? इसका समाधान देते हुए लिखते हैं कि ऐसा व्यवहार लाक्षणिक है वस्तुतः प्रतीति व्यङ्गय है, उस व्यङगय प्रतीति का विषय होने के कारण उसमें भी व्यङगयव्यवहार होने लगा। ठीक उसी तरह जिस तरह कि ज्ञान के शक्य होने पर भी लोग विषय को शक्य मानते हैं । अर्थात् घट शब्द का शक्यार्थ घट ज्ञान है; विषयरूप घट नहीं. किन्तु लोग मिट्टी के बने पात्र को जो ज्ञान का विषय है; घट पद का शक्यार्थ मानते हैं । (प्रतीति व्यङ्ग्य के विषय नहीं) इसी बात को सूचित करने के लिए वृत्ति में प्रकाशन पद का उल्लेख किया गया है। वस्तुतः कामुक विषय यह विशेषण प्रकाशन का है (व्यङ्गय का नहीं) प्रकाशन का अर्थ होता है 'ज्ञापन', 'प्रतीति' । इस तरह यह व्यङगध निकला कि 'यह (नायक) दूसरी में अनुरक्त नहीं है, व्यर्थ में ही आपने रूठ कर इसे कष्ट पहुँचाया सन्तप्त किया। इसलिए उसका अनुनय-विनय करना उचित है इस तेरे (दूती के) कथन से प्रेरित होकर अनुनय के लिए भेजी गयी त ही (दूती ही) इससे उपभुक्त हुई। इसलिए तुझे अब भी सावधान रहना चाहिए, यह यहाँ व्यङ्य है। इसलिए मैं इसके बाद उसका मुख भी नहीं देखूगी और मेरे लिए (मुझ पर उसे प्रसन्न करने के लिए) तुझे भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए इत्यादि अन्य प्रकार के व्यङ्गय भी यहाँ सूचित होते हैं, ऐसी हमारी (टीकाकार की) राय है। व्यङ्गायार्थ (के व्यञ्जकत्व) का उदाहरण देते हुए-मम्मट ने लिखा है :--'उअ' इति (संस्कृतच्छाया) 'पश्य निश्चलनिष्पन्दा' इत्यादि । अर्थ-देखो, कमल के पत्ते पर निश्चल और बिना हिले-डुले बैठी हई बलाका (बक पंक्तिनिर्मल (हरे रंग की) मरकत मणि की तश्तरी (पात्र) पर रखी हुई शंख और सीपी की तरह प्रतीत होती है ॥८॥ १. (उम०) इति प्रचलितः पाठः। २. गाथासप्तशतीत्याख्यायां (गाथाकोशे) प्रथमशतके चतुर्थपद्यमिदम् ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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