SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्यप्रकाशः पर्यायतापन्नानां सकलशब्दानामुपस्थाप्या येऽर्थास्तेषामपि व्यञ्जकत्वमिष्यत इत्यन्वयः । अयमर्थः"उण्णअपओहरे" त्यादौ [का.प्र., ४ उ., ५८ उदा.] पयोधरपर्याया ये जलदजीमूतमुदिरमेघादिशब्दास्तैरुपस्थापितस्यार्थस्य न व्यञ्जकत्वम्, अपि तु पयोधरपदोपस्थापितस्यैवेति भवति तत्र शब्दस्य व्यजकत्वम्, तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्, यत्र तु येन केनचित् पर्यायशब्देन तदर्थोपस्थितौ भवति व्यङ्गयोपस्थितिस्तत्र शब्दविशेषान्वयव्यतिरेकानुविधानात्, यत्र च येन केनचित् पर्यायशब्देन तदर्थोपस्थिती भवति व्यङ्गयोपस्थितिस्तत्र शब्द-विशेषान्वयव्यतिरेकत्यागादर्थस्यैवान्वयव्यतिरेकत्यागादर्थस्यैवान्वय अर्थ का अभिव्यञ्जक । यहाँ शाब्दी व्यञ्जना है क्योंकि यदि पयोधर शब्द को हटाकर मेघ अर्थ के वाचक जीमत, जलद आदि शब्द का प्रयोग किया जाय तो यहाँ 'स्तन' अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती। इसलिए यहाँ की व्यञ्जना शब्द-विशेष (पयोधर शब्द) के साथ जीती है और उसके साथ ही मरती है। इसलिए "तत्सत्त्वे तत्सत्ता तदभावे तद मावः" रूप अन्वय-व्यतिरेक के कारण यहाँ की व्यञ्जना शाब्दी व्यञ्जना है। २-आर्थी व्यजना जो किसी शब्द-विशेष . के साथ जीती मरती नहीं हैं; उसका अन्वय-व्यतिरेक अर्थ-विशेष के साथ रहता है, शब्द-विशेष के साथ नहीं। जैसे "मातगृहोपकरणमद्य" यहाँ 'मातः' शब्द को बदलकर 'जननि', 'गृहोपकरण' के स्थान पर "सदन तथा सामग्री" आदि कोई भी पर्याय रख दें तो भी व्यङ्गयार्थ की हानि नहीं होती। इस तरह जहाँ शब्दव्यञ्जना पर्यायपरिवृत्ति को सहन नहीं करती; वहाँ आर्थीव्यञ्जना में कोई भी पर्याय रखा जा सकता है। इस तरह जैसे शाब्दी व्यञ्जना शब्दाश्रय होती है, उसी तरह आर्थी व्यजना अर्याश्रय होती है। आर्थी व्यञ्जना में अर्थ ही वत्ति का आश्रय है। इसलिए अर्थ के विभाग को प्राथमिकता देना उचित ही था; क्योंकि व्यञ्जना वृत्ति का आश्रय जैसे शब्द है वैसे अर्थ भी है । 'अयमर्थ' इत्यादि (टीका) इसी बात को कहते हैं कि (शाब्दी व्यञ्जना में) पयोधर के पर्याय जितने जलद-जीमूत-मुदिर और मेघादि शब्द हैं; उनसे उपस्थापित अर्थ को व्यजक नहीं कह सकते हैं क्योंकि ये शब्द 'स्तन' अर्थ के प्रतिपादक नहीं हो सकते) । इसलिए पयोधर पद से उपस्थित होने वाला अर्थ ही व्यजक है। यही कारण है कि यहाँ शब्द को व्यजक माना गया है। व्यङ्गय अर्थ उसी (पयोधर) शब्द के साथ जीता और मरता है । अर्थात् व्यङ्ग्य अर्थ का अन्वय (तत्सत्त्वे तत्सत्ता) और व्यतिरेक (तदभावे तदभावः) पयोधर शब्द-विशेष के साथ है। तत् (पयोधर) शब्द की सत्ता (विद्यमानता) में तत् ('स्तन' रूप व्यङ्गय अर्थ की) सत्ता रहती है और उस पयोधर शब्द के अप्रयोग में (मेघ अर्थ के वाचक अर्थ शब्दों के रहने पर भी) उस व्यङ्गय अर्थ का अभाव हो जाता है । शब्द-परिवर्तन को नहीं सहन करना शाब्दी व्यञ्जना का स्वभाव हुआ करता है। किन्तु जहाँ जिस किसी भी पर्याय शब्द से अर्थ की उपस्थिति होने पर व्यङ्गय की प्रतीति होती है वहां (शाब्दी व्यञ्जना की तरह) शब्द के साथ व्यङ्गय का अन्वय-व्यतिरेक नहीं रहता; अपि तु शब्द विशेष के साथ अन्वय-व्यतिरेक का त्याग रहता है और अर्थ-विशेष के साथ ही अन्वय-व्यतिरेक रहता है । इसलिए (आर्थीव्यञ्जना में) अर्थ ही व्यजक होता है और वहीं वत्त्याश्रय होने के कारण अर्थ-विभाग को प्राथमिकता दी गयी है (वत्ति-विभाग को नहीं)। १. सम्पूर्णा गाथा यथा पंथिन रण एत्य सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थले गामे। उण्ण अपग्रोह: पेख्खिऊण जइ वससि ता वससु ॥ पिथिक नात्र स्रस्तरमस्ति मनाक प्रस्तरस्थले ग्रामे । उन्नतपयोधरं प्रेक्ष्य यदि वससि तदा वस ॥ इति संस्कृतम्]
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy