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________________ द्वितीय उल्लासः वाच्य एव वाक्यार्थ इत्यन्विताभिधानवादिनः । 1 'वक्ष्यमाणे 'ति । जात्यादीत्यर्थः । अन्वये वुभुत्सिते तात्पर्यार्थस्तात्पर्यरूपवृत्तिप्रतिपाद्यत्वेन परंरभिमतो वाक्यार्थ इत्यभेदेनान्वयः । अपदार्थत्वे हेतुः – विशेषवपुरिति घटानयनादिरूप इत्यर्थः । वादिनामिति बहुवचनेनान्विताभिधानापेक्षयाऽभिहितान्वयपक्षस्य समीचीनत्वं द्योत्यते । वृत्ति में "वक्ष्यमाणस्वरूपाणां पदार्थानाम्" में पदार्थानां का अर्थ है जात्यादि । आगे " सङ्केतितश्चतुर्भेदो जात्यादिर्जातिरेव वा" इस कारिका में जात्यादि को ही पदार्थ रूप में स्वीकार किया गया है । अन्वयबोध अभीष्ट होने पर नामक वृत्ति से प्रतिपाद्य होने के कारण प्रतीत होनेवाला तात्पर्यार्थ ही अन्य विद्वानों (अभिहितान्वयवादियों) के मत में वाक्यार्थ है, इस प्रकार अभेदान्त्रय मानना चाहिए । वाक्यार्थ अपदार्थ है अर्थात् वाक्यार्थ में पदार्थ ही भासित नहीं होता; किन्तु उसमें संसर्ग जो पदार्थ नहीं है वह भी भासित होता है। इसलिए वाक्यार्थ को पदार्थ समुदाय ही नहीं कह सकते हैं; किन्तु अन्वयबोधक संसर्ग - घटित पदार्थ समुदाय ही वाक्यार्थ होता है । इसलिए वाक्यार्थ को "विशेषवपुः " कहा गया है । यही प्रकट करते हुए बताते हैं कि वाक्य को अपदार्थ मानने में हेतु है उसका अर्थात् वाक्यार्थ का पदार्थसमूह की अपेक्षा विशेष (तुन्दिल) वपु (शरीर ) होना । 'घटमानय' में घट पदार्थ है घड़ा, अम् विभक्ति का अर्थ है कर्म, 'आनय' में आपूर्वक धातु का अर्थ है आहरण और लोट् लकार का प्रेरणा । इस तरह यहाँ पदार्थ समूह है घट कर्म आहरण प्रेरणा । वाक्यार्थ है घटक कारणानुकूल प्रेरणा । यहाँ घट और कर्म के बीच, तथा आहरण और प्रेरणा के बीच जो सम्बन्ध है वह पदार्थ नहीं है, किन्तु वाक्यार्थ है । उसकी प्रतीति के लिए तात्पर्यरूप वृत्ति मानना आवश्यक है, अतः वाक्यार्थ और तात्पर्यार्थ दोनों अभिन्न हैं । "अभिहितान्वयवादिनां मतम् " यहाँ " अभिहितान्त्रयवादिनाम्" में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। "एकवचनं न प्रयुञ्जीत गुरावात्मनि चेश्वरे" अर्थात् गुरु के लिए, स्वयं तथा ईश्वर के लिए एकवचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए इस सिद्धान्त के अनुसार बहुवचन के प्रयोग से यह प्रतीत होता है कि अन्विताभिधानवाद की अपेक्षा अभिहितान्वय अधिक समीचीन है । श्रन्विताभिधानवाद इसका कारण बताते हुए स्पष्ट करते हैं-अयम्भावः अर्थात् प्रभाकर और शालिकनाथ मिश्र आदि अभिधानवादी हैं । वे कहते हैं कि पहले केवल पदार्थ अभिहित होते हैं और बाद में उनका अन्वय होता है; ऐसी बात नहीं है । लेकिन वास्तविक बात तो यह है कि पहले से ही अन्त्रित पदार्थों का अभिधान होता है । अन्वित पदार्थों का ही अभिवान मानने के कारण इस मत को 'अन्त्रिताभिधानवाद' कहा गया है । इस मत में अभिधा अति पदार्थों का ही अभिधान माना गया है। इसलिए अन्वय संसर्ग के बोधन के लिए तात्पर्यवृत्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती है। प्रभाकर ने अपने मत के समर्थन में इस प्रकार तर्क उपस्थित किया है कि - पदों से जो पदार्थों की प्रतीति होती है; वह 'सङ्केतग्रह' के बाद ही होती है और 'सङ्केत ग्रहण' व्यवहार से होता है। जैसे एक व्यक्ति जिसको यह ज्ञान नहीं है कि किस शब्द का क्या अर्थ है कौन-सा शब्द किस अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है, जब अपनी माता को किसी व्यक्ति से "देवदत्त गाम् आनय" यह आज्ञा देते हुए पाता है तो उस समय वह न यह जानता है कि 'देवदत्त' का क्या अर्थ है और उसे न यह ज्ञान है कि 'गाम्' और आनय' का क्या अर्थ है । वह सम्पूर्ण वाक्य को सुनता है और एक व्यक्ति द्वारा गाय को लाते हुए देखता है। वह उस समय अखण्ड वाक्य का अखण्ड अर्थ समझता है। उसे अन्वित का ही बोध होता है। फिर यवासमय 'देवदत्त अश्वम् आनय' 'चैत्र गाम् आनय' 'देवदत्त गाम् बधान'
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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