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________________ द्वितीय उल्लासः किञ्च 'ब्राह्मणादीन् भोजय' इत्यत्र निमन्त्रितत्वस्येव अत्रार्थत्वस्यैव लक्ष्यतावच्छेदकत्वं वाच्यम्, तथा चार्थाः शब्दार्था इत्यर्थपर्यवसानेनानन्वयपौनरुक्त्ययोरापत्तिरुद्देश्यतावच्छेदक विधेयतावच्छेदकयोरभेदात् त्रिविधेति पदानुषङ्गेऽपि विभाजकतावच्छेदका नुपस्थितिस्तदवस्थैवेत्यत आह-'वाच्य लक्ष्यव्यङ्गयाः ' इति टीकार्थः । तथा च वाच्य-लक्ष्य-व्यङ्गयान्यान्यत्वमंत्र लक्ष्यतावच्छेदकम्, तद्घटकतया च वाच्यत्वादिविभाजकतावच्छेदकानां वाच्यादिविभाज्यानां चोपस्थित्या नानुपपत्तिः, यद्वा वाच्यपदे शक्त्यादिपदे लक्षणया द्वयेन च वाच्यत्वरूप शक्यतावच्छेदकलक्ष्यत्वव्य ङ्गत्वरूपलक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन्नवाच्यादित्रयोपस्थितिरिति 'युक्त मुत्पश्यामः । ५ ननु पदार्थवद् वाक्यार्थस्यापि व्यञ्जनावृत्त्याश्रयतया भट्टमतसिद्धतात्पर्याख्यवृत्ति- प्रतिपाद्यतया च तद्विभागोऽपि कत्तमुचित इति तदकरणाद् न्यूनतेत्यत आह जिज्ञासा जगती है; उसी तरह (आर्थी व्यञ्जना में ) व्यञ्जना रूप वृत्ति के आश्रय होने से अर्थ के विषय में भी जिज्ञासा उत्पन्न होती है । उसे शान्त करने के लिए अर्थ का निरूपण करना आवश्यक था । इस लिए उनका (अर्थों का ) विभाग करते हैं । ( अवसर संगति) वाच्यादय इति वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय ये तीन उन (वाचक, लक्षक और व्यञ्जक शब्दों) के अर्थ होते हैं । शब्दों के लक्षण अर्थघटित अर्थात् अर्थों को आधार बनाकर ही किये जाते हैं। इसलिए उनका (वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों का ) लक्षण (पहले) नहीं करके अर्थों का विभाग किया गया है। ऐसा नवीन आचार्यों का मत है । समावेश नहीं हो सकेगा तथा साथ अतिरिक्त अर्थ लक्ष्य और व्यङ्गघ यदि "वाच्यादयः " यहाँ, 'वाच्य है आदि जिनके' इस प्रकार विग्रह करने पर 'अतद्गुण-संविज्ञान- बहुब्रीहि ' मानें, तो ( वाच्यादि इस पद में वाच्य नहीं लिया जायगा ) वाच्य का ( अर्थ भेद में) साथ "वाच्यादयः” यहाँ बहुवचन का प्रयोग भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि वाच्य के दो ही शेष रह जाते हैं, जिन का समावेश होने से वाच्यादि पद से द्विवचन होकर 'वाच्यादी' होना चाहिए, "वाच्यादयः" नहीं! तद्गुणसंविज्ञानबहुब्रीहि (मानने) से "वाच्यादय:" यह पद तीनों (वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गयों) का बोधक हो जायगा ? ऐसा नहीं कहना चाहिए; क्योंकि ( समास में पृथक् शक्ति नहीं मानने वाले और समस्त पदों में लक्षणा के द्वारा अर्थबोध करने के पक्षपाती नैयायिक के समान मत रखनेवालों के मत में लक्षणा के द्वारा तीनों एकलक्ष्यतावच्छेदकरूप में अर्थात् एकवाच्यादिरूप में उपस्थिति होगी, ऐसी स्थिति में भिन्न-भिन्न विभाजकतावच्छेदकावच्छिन्नत्वरूप से उपस्थिति नहीं होने पर (तीन) विभागों की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। उन्हीं वस्तुओं में भेद माना जा सकता है; जिनकी उपस्थिति भिन्न-भिन्न रूप में होती है । वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय में भेद माना जा सकता है; क्योंकि इनकी वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय इन विभिन्नरूपों में उपस्थिति होती है। किन्तु यदि वाच्यादि शब्द से ही वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गघ की उपस्थिति हो तो इनमें भेद नहीं मान सकते हैं क्योंकि तीनों की उपस्थिति वाच्यादि एकरूप में होने के कारण इन्हें एक मानना चाहिए, अनेक नहीं। इस तरह " वाच्यादयस्तदर्थाः स्युः " इस सूत्र से अर्थ के जो तीन भेद बताना चाहते थे; वह सिद्ध नहीं हो रहा है यह प्रश्न का अभिप्राय है । इस 'सूत्र प्रयुक्त "वाच्यादयः” शब्द के कारण एक दोष और आ गया है, वह "किञ्च" शब्द से बताते हैं वह दोष हैं— उद्देश्य और विधेय की एकता । में जैसे यदि कोई कहे "ब्राह्मणादीन् भोजय" ब्राह्मणादि को खिलाओ तो समस्त ब्राह्मणादि मानवों को खिलाना असम्भव जानकर " निमन्त्रितान् ब्राह्मणादीन् भोजय" निमन्त्रित ब्राह्मणादि को खिलाओ; यही अर्थ मानना होगा । निमन्त्रित्व यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक या उद्देश्यतावच्छेक होगा। ठीक इसी तरह "वाच्यादि" में अर्थत्व ही लक्ष्यतावच्छेदक होगा तब अन्ततोगत्वा सूत्र का रूपान्तर इस प्रकार होगा " अर्था: ( वाच्यादयः) तदर्थाः शब्दार्थाः " । यहाँ उद्देश्यता
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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