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________________ PRE प्रणालियों में १ परोक्ष, २ प्रत्यक्ष ३ उदाहरण एवं स्वतन्त्र प्रणालियों का पूरा उपयोग किया है तथा अपने ज्ञान की 1 सुरभि का मानन्द प्राप्त कराने के लिए सुधी पाठकों के समक्ष एक उत्तम टीका प्रस्तुत की है। इस प्रकार 'काव्य-प्रकाश' वस्तुतः एक 'चिन्तामणि' है, जिसका चिन्तन चिन्तनकर्ता के लिए विविधविषयचिन्तन के मार्गों को उद्घाटित करता रहा है। "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तेसो" इस उक्ति के धनुसार साहित्य, न्याय, व्याकरण, धर्मशास्त्र, पुराण एवं दर्शनों की दृष्टिवाले प्रत्येक विचारक ने 'काव्य-प्रकाश' में अपने-अपने विचारों का वैशद्य प्राप्त किया है। काव्य - प्रकाश की विषय-वस्तु और भाषा-संयोजना ऐसी सर्वमुखी बन गई है कि गीता के "ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् " की भाँति सबके मनोरथों की पूर्ति का यह स्रोत बना हुआ है। तथा भारत के प्रायः सभी प्रदेशों के आचार्यों ने इसकी टीकात्मक अर्चना की है । • विगत कुछ शताब्दियों में हुए इसके सर्वतोभद्र प्रचार-प्रसार के कारण इसकी १- बाचना' (सामूहिक पाठविचार) को सम्भावनाएं बन रही हैं जिससे नितान्त शुद्ध पाठात्मक स्वरूप प्रस्तुत हो सके। २. पाठान्तरों की पर्यनुबीक्षा के प्रायाम प्रतिविस्तृत होगये हैं क्योंकि भारत के प्रत्येक प्रदेश में सङ्कलित हस्तप्रतियों एवं टीकाओं में बहुत से शब्द, वाक्य एवं विचारांशों में विभिन्नता भाई है। तथा ३. 'तात्पर्य निर्णय' की श्रावश्यकता भी विद्वत्समाज के समक्ष उपस्थित ही है क्योंकि जिसने जैसा समझा वैसा व्यक्त किये जा रहा है। परिणामतः सर्वसाधारण पाठक सन्देह- शिला पर खड़ा कान्दिशीक बन जाता है। ऐसी ही अन्य बहुत-सी बातों का भी इनमें समावेश हो सकता है । arersकाश के ऐसे विराट स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए कोई विराट् योजना बनेगी तो अवश्य ही वह संस्कृतसाहित्य के चिन्तकों के लिए प्रसन्नता का विषय होगा । प्रस्तुत दो उल्लासों की टीका के माध्यम से किया गया यह कार्य जहाँ तक सम्भव हुआ अपने अंश में परिपूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है जिसे मनीषी पाठक निश्चय ही उपादेय मानेंगे। ऐसे उत्तमसलन, सम्पादन एवं प्रकाशन के लिये घंटे श्री यशोयको महाराज समस्त संस्कृतानु रागियों के लिए समादरणीय है। ऐसे महनीय साहित्य के जीवन और वृतिला से भी हमारा पाठक समाज परिचित हो तथा उनसे सहयोग एवं प्रेरणा प्राप्त करे" इस दृष्टि से उनका संक्षिप्त जीवन चरित्र एवं कृति-परिचय देना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । अतः वह यहाँ स्वतन्त्रता रूप से कांगे प्रस्तुत किया गया है। अपनी बात मेरी साहित्यिक कृतियों को उर्वरित बनाने में सर्वाधिक प्रेरक पं० श्री धीरजलाल टोकरी शाह की प्रेरणा से मुझे ऐसे अनुपम विद्वान्, कवि, लेखक, प्रियवक्ता, अवधानकार अनेक ग्रन्थों के संशोधक और मन्त्र- योगादि शास्त्रों के ज्ञाता एवं सफल साधक मुनिवर्य श्री यशोविजयजी महाराज के सांन्निध्य एवं सम्पर्क का सुयोग प्राप्त हुमा श्रोर उनके द्वारा सुसम्पादित प्रस्तुत पूज्य उपाध्याय जी विरचित 'काव्यप्रकाश' के दो उल्लासों की टीका तथा इसके हिन्दी धनुवाद के सम्पादन और उपोद्घात लेखन का जो कार्य प्राप्त हुआ, इसे मैं अपना सौभाग्य हो मानता हूँ। प्रापके निर्देशों से मैं बहुत ही लाभान्वित हुआ है तथा प्रापकी सूक्ष्म दृष्टि एवं प्रकाशन पटुता से मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई है। मुनिजी के विविध सामयिक परामशों के प्राधार पर यह कार्य सम्पन्न हुआ है। यद्यपि इस कार्य में बहुतसी त्रुटियाँ भी रही हैं किन्तु वे मेरी असावधानी अथवा अज्ञानता से ही हुई हैं। अतः पाठकगरण त्रुटियों का परिमार्जन करते हुए हमें भी सूचित करें जिससे अग्रिम संस्करण में उनका शोधन किया जा सके । f
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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