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________________ अनुचित व्यापार किया । अत: 'तुम्हें अब सावधान हो जाना चाहिये। मैं तो अब उसका मुंह भी नहीं देखूमी। तुम भी यह काम करके उसके अनुनय के लिये कभी परिश्रम मत करना ।' ऐसा व्यंग्य लक्षित होता है। यहाँ व्यङ्ग्य की सूक्ष्मता बताकर उपाध्यायजी महाराज ने अपनी अनूठी प्रतिभा और मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ का परिचय दिया है। अर्थ के शब्दाधीन होने के कारण प्रथम शब्दों का निरूपण किया गया है तदनन्तर अर्थों का। शब्दों में भी वाचक शब्द के अधीन लक्षक और व्यञ्जक शब्द होने के कारण प्रथम वाचक शब्द का निरूपण है । "साक्षात् सङ्केतितं योऽर्थमभित्ते स वाचकः" (सू०६ पृ० २५) इस तरह सङ्कत के द्वारा जो शब्द जिस अर्थ का वाचक हो, वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है। उदाहरण—'गङ्गायां घोषः' यहां गङ्गाशब्द प्रथम सङ्कत द्वारा जलप्रवाह-विशेष अर्थ का बोधन करता है। इसलिये गङ्गा शब्द जलप्रवाह-विशेष अर्थ का वाचक होता है । किस शब्द का किस अर्थ में संकेत है ? इसका निश्चय न होने पर शब्द श्रुत होने पर भी उस शब्द से अर्थबोध नहीं होता है। अतः शब्द से अर्थबोध की प्राप्ति के लिये मध्य में संकेतग्रह होना चाहिये। संकेत में कहीं तो ईश्वर की इच्छा ली जाती है और कहीं प्राप्त पुरुषों की। वह संकेत किस अर्थ में मानना चाहिये । इस प्रसंग में मम्मट ने बहुत-से मत प्रदर्शित किये हैं। जैसे 'जात्यादि तिरेव वा' इत्यादि । अभिप्राय यह है कि व्यवहार में शब्द से व्यक्ति-विशेष में ही अर्थक्रिया की प्रतीति होती है। कोई भी व्यक्ति 'गाम प्रानय' इस तरह के वाक्यों को सुनकर गो आदि व्यक्ति के ही पानयन में प्रवृत्त होता है। इसलिए व्यवहार से गो आदि शब्दों का गो प्रादि सास्नादिमान् व्यक्ति में ही शक्तिग्रह सिद्ध होता है। इसलिए गो आदि शब्दों का सङ्कत गो आदि सास्नादिमान् व्यक्ति में ही होना चाहिए। किन्तु देश-काल के भेद से व्यक्ति अनन्त होने के कारण उनमें सङ्कतग्रह होना असम्भव है। यदि किसी भी व्यक्ति-विशेष में शक्ति-(सङ्केत) ग्रह कर लेने पर बिना सङ्कतग्रह के ही अपर-अपर व्यक्ति का बोध वैसे ही स्वीकार कर लें तो उस-उस अर्थबोध का-उसउस संकेत का कार्य-कारणभाव ही नहीं हो सकता है। इसलिए उन्होंने प्रथमकल्प में जात्यादि में सङ्केतग्रह सूचित किया है। जात्यादि शब्द से उपाधि समझनी चाहिए। उपाधि दो तरह की होती है एक वस्तुधर्म, दूसरा यहच्छासनिवेशित अर्थ । वस्तुधर्म भी दो प्रकार का होता है एक सिद्ध और दूसरा साध्य । सिद्ध पदार्थ दो प्रकार का होता है प्रथमपदार्थों का प्राणप्रदधर्म तथा द्वितीय-विशेषाधान हेतु । पदार्थों का प्राणप्रद धर्म जाति होता है जिसे गोत्व आदि कहते हैं। उसका स्वरूप श्री भत हरि ने स्वोपज्ञ वाक्यपदीय में 'न हि गौः स्वरूपेण गौन प्यगौः गोत्वाभिसम्बन्धात्त गौः' इस शब्द से यह सूचित किया है कि गोत्वरूपी पदार्थप्रद धर्म के अभाव में गो में तो 'गौः' इस तरह का गोव्यवहार ही कर सकते हैं । या 'प्रगोः' में गवेतर का ही व्यवहार कर सकते हैं। विशेषाधानहेतु शब्द से शुक्लादि गुण समझाया गया है। क्योंकि द्रव्यवस्तु की सत्ता निश्चित हो जाने पर उनका प्रयोग द्रव्यवस्तु में कर सकते हैं। साध्यधर्म से क्रियासमूह समझना चाहिए । 'वक्तृयदृच्छासंनिवेशित अर्थ' से स्वयम् मम्मट ने 'डित्यादिशब्दा. नामत्यन्तबुद्धिनिर्णाह्य संहृतक्रमं स्वरूपं वक्त्रा यहच्छया डित्थादिष्वर्येषूपाषित्वेन संनिवेश्यत इति सोऽयं संज्ञारूपो यहच्छात्मक इति ।' इस शब्द से गो आदि शब्दों की जो पानुपूर्वी संज्ञात्मक प्रसिद्ध है तदाश्रित शब्दों को सूचित किया है। उसमें प्रमाण रूप से महर्षि पतञ्जलि का व्याकरणमहाभाष्यवचन 'गौः शुक्लश्चलो डित्थ इत्यादौ चतुष्टयो शम्दानां प्रवृत्तिः इति महाभाष्यकारः' इस तरह दिया है । अत: १-जाति, २-गुण, ३-क्रिया और ४-यहच्छात्मक संज्ञा शब्द ये चार तरह के अर्थ होते हैं।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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