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________________ ( ३२४ ) योगचिन्तामणिः । [ मिश्राधिकारः जीरा १ भाग, मिश्री दो भाग इसमें चौगुना गरम घृत डाल सबको मिलाकर उत्तम पात्रमें भर देवे और गेहूँ धानकी राशि गाड देवे फिर चौदह दिन बाद निकालकर शरदी के दिनों में खावे तौ नेत्रोंको हित होवे ॥ १ ॥ २ ॥ घृतपानम् । शुद्धं गव्यं घृतं तप्तं मरिचैर्वा कणान्वितम् । रसायनं सदा पेयं घृतपानं प्रशस्यते ॥ १ ॥ रूक्षतविषार्त्तानां वातपित्तविकारिणाम् । हीनमेघास्मृतीनां च घृतपानं प्रशस्यते ॥ २ ॥ शुद्ध घृतको तपाकर उसमें कालीमिरच वा पीपल डालकर पीवे यह रसायन है. रूक्षदे हवाला, उरःक्षत, विषपीडित, वातपित्तविकारबाला, बुद्धिहीन, स्मरणरहित ऐसे ममुष्यको घृत पीना सदा हित है ॥ १ ॥ २ ॥ निम्बपानविधिः । रसो निम्बस्य मंजर्याः पीतश्चैत्रे हितावहः । हन्ति रक्तविकारांश्च वातपित्तं कफं तथा ॥ १ ॥ चैत्र के महीने में नीमकी कोंपल घोटकर पीनेसे रुधिर विकारों को तथा वात, पित्त कफ के रोगोंको नष्ट करे ॥ १ ॥ खण्डपानम् । द्वे पले शुद्धखण्डस्य गालयित्वा जले पिबेत् । अङ्गसादं प्रशमयेद्रुधिरस्य विकारजम् ॥ १ ॥ कपित्थं च शताह्वा च धान्यकं खण्डसंयुतम् । अथवा शर्करायुक्तं ग्रीष्मकाले सुखावहम् ॥ २ ॥ मिश्री दो पलको जलमें घोलकर पीनेसे रुधिरविकारजन्य, शरी · Aho ! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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