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________________ सप्तमः ] भाषाटीकासहितः। (३१५) इस प्रकार छाछ के गुण जानकर रोगीको देवे । अब छाछका पीना वर्जित बतलाते है-क्षयी, शोष, क्षीण, गरमीकी ऋतु, शरदऋतु, मुर्छा, भ्रम, प्यास और पित्तके रोग इनमें छाछ पीना वर्जित है ॥ ५ ॥ ६॥ शनैः शनैहरेदन्नं तकं तु परिवर्धयेत् । तक्रमेव यथाऽऽहारो भवेदनविवर्जितः ॥ ७॥ श्रमं न कुर्याद्वहुशो न कुर्याद्वहु भाषणम् । न कुर्यान्मैथुनं तकपाने क्रोधं विवर्जयेत् ॥ ८॥ एवं यः सेवते तक्र ग्रहणी तस्य नश्यति । शीघ्रमेव न सन्देहः श्रीर्यथा द्यूतकारिणः ॥९॥ ग्रहणीरोगिणां तकं संग्राहि लघु दीपनम् । सेवनीयं सदा गन्यं त्रिदोषशमनं हितम् ॥ १० ॥ धीरे २ अन्नको छोडता जाय और छाछको बढावे इस प्रकार करते २ केवल छाछकाही आहार करै । बहुत परिश्रम करना अधिक बोलना, मैथुन और क्रोध इनको त्याग देवे । इस प्रकार सेवन करनेवालेकी संग्रहणी दूर होवे जैसा जुआवालेकी सम्पत्ति । तक संग्राही हलका और दीपन है इसीसे संग्रहणी रोगवालेको सदैव सेवन करना. चाहिये ॥ ७॥ १० ॥ कठरोहः। षोडशपलायः कीलानि लवणं च पलद्वयम् । त्रिकटु त्रिफला मुंगी त्वग्लवंगं च पत्रिका ॥ १॥ प्रत्येकमर्द्धपलिकान्क्षिपेत्तकं पलत्रयम् । उष्णं जलं शतपलं क्षिप्त्वा भूमौनिधापयेत् ॥२॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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