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________________ ( २८८ ) योगचिन्तामणिः । [ मिश्राधिकारः रससंयुक्त तैलमें डाल लोहपात्रमें एक महीने पर्यंत जमीनमें गाड देवे फिर बालोंमें लगाने से भ्रमर के समान काले होजावें ॥ १-९ ॥ केशवर्धनम् । गोक्षीरे तिलपुष्पाणि तुल्येन मधुसर्पिषा । शिरःप्रलेपनं कुर्यात्केशसंवर्द्धनं परम ॥ १ ॥ हस्तिदन्तमषिं कृत्वा छागीदुग्धरसांजनम् । रोमाण्येतेन जायन्ते हस्तपादतलेष्वपि ॥ २ ॥ चतुष्पदानां त्वग्रोमनख शृङ्गास्थिभस्मभिः । तैलेन सह लेपोऽयं रोमसंजननं परम् || ३ || गौ दूधमें तिलके फूल, शहद, घी बराबर मिलाकर शिरपर लेप करे तो बाल बढ़ें । हांथीदांतको जलाकर रसौंतसहित बकरी के दूधमें मिलाकर शरीर में लगानेसे हाथ पैरामें भी रोम बढें । चौपायोंकी खाल और उनके रोम, नख, सींग, हाड इन सबकी भस्म करलेवे, फिर तेलके साथ मिला कर लेप करने से रोम उत्पन्न होवें ॥ १-३॥ रोमशातनम् । शंखचूर्णस्य भागौ द्वौ हरितालैकभागकम् । मनःशिलार्द्धभागा स्यात्सर्जिका चैकभागिका ॥१॥ लेपोऽयं वारिपिष्टस्तु केशानुत्पाटय दीयते । अनया लेपयुक्तया च सप्तवेलं प्रयुक्तया ॥ २ ॥ निर्मूलनं स्यात्केशस्य क्षपणस्य शिरो यथा ॥ ३ ॥ शंखकी भस्म दो टंक, हरताल १ टंक, मनसिल आधी टंक सज्जीखार १ टंक इनको पानीमें पीसकर लगावे तो बालों को उखाडे और सात बार लगानेसे निर्मूल करै । जैसे जैनी वैरागीका शिर ॥ १-३ ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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