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________________ (२४६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः रसकर्पूरविधिः। पारदः स्फटिका चैव हीराकासीसमेव च । सैन्धवं समभागे ते विंशांशं नवसादरम् ॥ १ ॥ खल्वे विमर्य सर्वाणि कुमारीरसभावना । क्रमवृद्धाग्निना पक्को रसः कर्पूरसंज्ञकः ॥ २॥ पीसी फिटकरी, हीराकसीस, नोन प्रत्येक एक एक सेर, बीसवां हिस्सा नवसादर इनको खरल कर कुमारीरसमें क्रमसे अग्नि देवे, पहिले मन्दाग्नि, फिर मध्यमाग्निं, फिर तीक्ष्णाग्नि दे तो · रसकपूर बनै ॥ १-२॥ सूतं संशोध्य चक्रामं कृत्वा लिप्त्वा च हिंगुना। द्विस्थालीसम्पुटे धृत्वा पूरयेल्लवणेन च ॥३॥ अधःस्थाल्यां ततो मुद्रां प्रदद्याद् दृढतां बुधैः । विशोष्याग्नि विधायाधो निषिचेदबुनोपरि ॥४॥ ततस्तु कुर्यात्तीवाग्निं तदधः प्रहरत्रयम् । एवं निपातयेदूर्ध्वं रसो दोषविवर्जितः ॥५॥ अथो पिठरीमध्ये लग्नो ग्राह्यो रसोत्तमः॥६॥ पारेको शोधकर निर्मल करे, फिर हांडीमें हाँगका लेप करे, दूसरी हांडीका सम्पुट कर नोनसे भर दे और हांडीमें दृढ मुद्रा देवे, जब सूख जाय तब चूल्हे पर चढावे, क्रमसे आग्ने देवे और तीन प्रहर तीक्ष्ण भग्नि देवे और पानीसे भीगा कपडा रक्खे, थोडा २ पानी डालता जाय, जब शीतल होवे तब निकाले जो ऊंचा चढजाय वो निर्दोष मानो, ऊपरकी हांडीमें हो उसे उत्तम नानो । ३-६ ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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