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________________ ॥ श्रीः ॥ || श्रीधन्वन्तरये नमः ॥ योगचिन्तामणिः । भाषाटीकासहितः । पाकाधिकारः - प्रथमोऽध्यायः १. यत्र वित्रासमायान्ति तेजांसि च तमांसि च । महीयस्तदहं वन्दे चिदानन्दमयं महः ॥ १ ॥ श्रीकृष्णं प्रणिपत्य सद्गुणनिधि धन्वन्तरिं शारदां श्रीमन्माथुर वंशजं स्वजनकं श्रीकृष्णलालं गुरुम् | अल्पज्ञानवतां करोमि सुखदां सद्योगचिन्तामणेमंजूषां व्रजभाषयाऽर्थबहुलां श्रीदत्तराम मित्रः || अर्थः-पत्र कहिये जहाँ तेज और तम ( अंधकार ) नाशको प्राप्त होय ऐसे महान तेजःपुंज चिदानंदको हम वंदना करते हैं ॥ १ ॥ जगत्रित लोकानां पापरोगापनुत्तये । यद्वाक्य भेसजं भाति श्री जिनः स श्रियेऽस्तु वः ॥ २॥ • जिसका वचन त्रिलोकी के पापरूप रोगोंको औषधि स्वरूप है ऐसे श्रीजिन ( तीर्थंकर ) तुमको लक्ष्मीके देनेवाले हों ॥ २ ॥ सिद्धौषधानि पथ्यानि रागद्वेषरुजां जये । जयन्ति यद्वांस्त्र तिर्थकृत्सोऽस्तु वः श्रियै ॥ ३॥ जिनका वचन रागद्वेषरूप रोगोंको नाश करनेके लिये सिद्ध Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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