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________________ - चतुर्थः ] भाषाटीकासहितः। (१४७) गीतनृत्यप्रलापान्विंदधति तमसाध्यं कम्पचित्तभ्रमाख्यम् ॥ १॥ उत्तिष्ठति बलात्कारं कृत्वा ब्रूते यदृच्छया । यामीति वदते नित्यं स त्याज्यो भिषगुत्तमैः ॥ २॥ जो कदाचित् पुरुषके कर्णपीडा होवे, तापकी पीडा, भ्रम, मद, परिताप, मोह, विकलता ऐसा रूप होय और आंखें फटीसी हो जॉय और हंसे, गावे, नाचे बके यह लक्षण होंय तो असाध्य और कोई चित्तभ्रमको असाध्य कहते हैं और बलात्कार करके उठे, जो मनमें आवै सो बोले और निरन्तर यही कहे — जाताहूं' तो उत्तम वैद्य उस रोगीको त्याग देवे ॥ १ ॥ २ ॥ सन्निपाते हरीतक्यादिक्वाथः । पथ्यापर्पटकटुकामृद्वीकादारुजलदभूनिम्बैः । ब्राह्मीपटोलसम्यक्काथश्चित्तभ्रमं हन्ति ॥ १ ॥ हरड, पित्तपापडा, कुटकी, दाख, दारुहलदी, मोथा, चिरायता, ब्राह्मी, पटोलपत्र इनका क्वाथ चित्तभ्रम और सन्निपातको दूर करता है ॥ १ ॥ सन्निपाते तगरादिक्वाथः । तगरतुरगगन्धा पर्पटः शंखपुष्पी त्रिदशविटपतिक्ता भारती भूतकेशी । जलधरकृतमालश्चेतकी गोस्तनीनां सह हरति कषायःपक्षपानात्प्रलापम्॥३॥ " तगर, असगन्ध, पित्तपापडा, शंखाहुली, देवदारु, ब्राह्मी, कटुक (कुटकी ), छेड, अमलतास, मोथा, अमलतासका गूदा, सम्भाल, दाख इनका काढा १५ दिन पीवे तो असाध्य सन्निपातका नाश करता है ॥१॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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