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________________ भाषाटीकासमेत। नमः ॥१४॥ इति मन्त्रान्सकृन्जपित्वा नत्वा च प्राक्छिराः स्वपेत् ॥ दक्षिणं पार्श्वमानम्य स्वप्नं चाथ परीक्षयेत् ॥१५॥ अथापरः स्वप्नप्रदः श्रीरुद्रमन्त्रः ॥ (ॐ नमो भगवते रुद्रा य मम कर्णरन्ध्रे प्रविश्य अतीतानागतवर्तमानं सत्यंब्रूहिब्रू हि.स्वाहा ॥२॥) इमं मंत्रं समुच्चार्यायुतवारं दशांशतः ॥ तिलान्हुत्वा सिद्धमन्त्रो रात्रौ दर्भासने शुचिः॥१६॥जस्वा वामं पाचमधः कृत्वा धृतमनोरथः ॥ शयीत स्वप्न आगत्य देवः सर्व ब्रवीति तम् ॥ १७॥ अथापरः स्वप्नप्रदो गणपतिमन्त्रः ॥ (ॐ त्रिजट लंबोदर कथय कथय कथय हुं फट् स्वाहा ।। ३॥) कार्य विचिन्त्य प्रजपादष्टोत्तरशतं नरः॥ शयीत पश्चादशुभं शुभं वा कथयेद्विभुः ॥ १८॥ अथापरः स्वप्रप्रदो विष्णुमन्त्रः ॥ कार्पण्येतिम न्त्रस्यार्जुन ऋषिः । दण्डकं छन्दः । श्रीकृष्णो देवता। ( अमुक) कार्याकार्यविवेकस्वप्नपरीक्षार्थे जपे विनियोगः ॥ नमस्कार है ॥१४॥ इन मंत्रोंको एकवार जपकर और पूर्वकी औरको शिर करके दाहिने करवट लेट कर शयन करै आर्थात सीधीबगलको नीचे कर सोवै और स्वप्नकी परक्षिा करैः ॥ १५ ॥ अब दूसरा स्वप्नका देनेवाला श्रीरुद्रका मन्त्र कहतेहैं "ओं नमो भगवते रुद्राय मम कर्णरन्ने प्रविश्व जतीतानागतवर्तमानं सत्यं ब्रूहि ब्रूहि स्वाहा २" इस मंत्रको दश सहस्त्र जपकर दशांशतिलोंका हवन कर सिद्धमंत्र वाला रात्रीमें पवित्र हो कुशाशनपर बैठे ॥ १६ ॥ इस मंत्रको जपकर मनमें कार्यको धारण करके वामपार्श्वको नीचे करके शयन करे तो स्वप्नमें आकर देवता उस्से सब कहताहै ॥१७॥ अब दूसरा स्वप्नका देनेवाला गणपति मंत्र कहतेहैं । “ओं त्रिजट लम्बो दर कथय कथय हुं फट् स्वाहा ३" कार्यको मनमें धारण कर इस मंत्रको १०८ वार जपे तो स्वप्नमें आकर देवता शुभ अशुभ जैसा हो वह सब कहताहै ॥ १८ ॥ अब दूसरा स्वप्नका देनेवाला विष्णुमंत्र कहतेहैं। ओं कर्पण्येति इसमंत्रका अर्जुन ऋषि दंङक छंद श्रीकृष्ण देवता अमुक कार्याकार्यके ज्ञान और स्वप्नको परीक्षामें विनियोगहै (ओंकार्पण्येतियहमंत्र आर्थात् कृपणताके रोषसे मेरा स्वभाव हत होगयाहै मैं मूढबुद्धि होकर आपसे धर्म पूछताहूं हे कृष्ण जिसमें मेरा कल्याण हो सो आप मुझसे कहो मैं तुम्हारा शिष्यहूं तुम्हारी शरणहूं आप मुझे शिक्षा करें ओं) इन मंत्रपदोंको कहकर चतुर मनुष्य पंचांगमें न्यास करे और पकान चित्त होकर विधिपूर्वक Aho! Shrutgyanam
SR No.034213
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1828
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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