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________________ पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणम् । ( ३५७ ) मध्यप्रदेशे यदि पादपस्य स्कन्धप्रदेशे यदि वा विहंगः ॥ भौमायशब्दौ कुरुते यदा तु मध्यं निकृष्टं च फलं ददाति ॥ ॥ १२५ ॥ भक्ष्यपूर्णवदनः शुभशब्दो रम्यदेशनिरतो विहगो यः ॥ संपदं प्रवितरत्यतिवह्नीं तान्निति पुनरुझ्झितभक्ष्यः ॥ १२६ ॥ त्वक्त्वार्चितं पादपमन्यवृक्षे दृश्येत यः शोभनशब्दकारी ॥ अभीष्टदेशादपरत्र देशे सोऽचिंतितां यच्छति कार्यसिद्धिम् ॥ १२७ ॥ भूरिकोटरयुते परिशुष्के पादपे जरति मोटितशाखे ॥ अंबरेण कुरुते यदि शब्द मृत्युदस्तदचिरेण पतत्री ॥ १२८ ॥ ॥ टीका ॥ समीहिते च सिद्धिदायी स्यात् ॥ १२४ ॥ यदि पादपस्य मध्यप्रदेशे यदि स्कन्धप्रदेशे स्थितो विहंगो भौमाप्यशब्दौ कुरुते तदा क्रमेण मध्यं च निकृष्टं फलं ददाति ॥ १२५ ॥ भक्ष्येति ॥ यदि भक्ष्यपूर्णवदनः शुभशब्दः रम्यदेशे विशेषेण रतो विहगः स्यात्तदा अतिवह्नीं संपदं वितरति । उझ्झितभक्ष्यः सन्पुनस्तां संपदं विनिहन्ति ॥ १२६॥ त्यक्त्वेति ॥ अर्चितं पादपं त्यक्त्वाऽन्यवृक्षे दृश्येत कीदृक शोभनशब्दकारी सोऽभीष्टदेशादपरत्र देशे चिंतितां कार्यसिद्धिं यच्छति ॥ १२७॥ भूरीति ॥ भूरिकोटरयुते परिशुष्के जरति परिमोटितशाखे भग्नशाखे पादपेंश्वरेण स्वरेण यदि ॥ भाषा ॥ सिद्धि करै ॥ १२४ ॥ मध्येति ॥ जो पिंगल वृक्ष के मध्यदेशमें स्थित होयकर वा वृक्षकी डालनमें स्थित होयकर पृथ्वी, जल ये शब्द करे तो मध्यफल अथवा निकृष्टफल देवै ॥ १२५ ॥ भक्ष्येति ॥ भक्ष्य जाके मुखमें होय शुभशब्द बोलतो होय, सुन्दरस्थानमें जाकी प्रीति होय ऐसो पिंगल अत्यंत बहुत संपदा देवे फिर भक्ष्यकूं त्याग करदेवै तो वा संपदाकूं नाश करदे ॥ १२६ ॥ त्यक्त्वेति ॥ अर्चन करेहुये वृक्षकूं छोडकरके और वृक्षपै जाय बैठे वहां शोभन शब्द करतो दीखै तो, बांछित देशसूं और देशमें वांछितसेभी अधिक और अन्यही कार्यसिद्धि देवे ॥ १२७ ॥ भूरीति ॥ बहुतसी कोटरा जामें होय, सूखो होय, जीर्ण होय, शाखा जाकी टूटरही होय ऐसे वृक्षपै, आकाश स्वरकर के शब्द करे तो पिंगल शीघ्रही मृत्यु देवै ॥ १२८ ॥ Äho! Shrutgyanam
SR No.034213
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1828
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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