SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१९६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः । भूत्वोद्धृता भक्ष्यमथो गृहीत्वा प्रदक्षिणा क्षीरतरौ निविष्टा ॥ प्रत्यक्षदेवी यदि तत्प्रयातुर्भवत्यवश्यं महती धनदिः॥३१॥ उन्मूलितच्छिन्नविशीर्णशुष्कवृक्षेषु भस्मोपलकर्परादौ ॥ तारोपविष्टा फलहानिकी भवेच्च वामा नियमेन हंत्री ॥ ॥३१५॥ गत्वातिदूरं पुरतःप्रयातुरदृश्यतां गच्छति यस्य तस्य ॥ क्षेमकरी सम्मुखमभ्युपैति यस्य ध्रुवं तस्य पराजयः स्यात् ॥ ३१६॥ यदि प्रियं पांथमनुव्रजित्वा निवर्तमानस्य भवेद्वितारा॥ शुभावहा तद्यदि चेति तारायुक्तं तदा तेन समं प्रयातुम् ॥ ३१७॥ ॥टीका ॥ स्यात् तदानीं लाभक्षतिः न तु कापि भीतिः॥ ३१३ ॥ भूत्वति ॥ यदि उद्धता भूत्वा भक्ष्यं गृहीत्वा प्रदक्षिणा क्षीरतरौ निविष्टा प्रत्यक्षदेवी स्यात्तदा प्रयातुरवश्यं महती धनर्द्धि: स्यात् ॥ ३१४ ॥ उन्मूलितेति ॥ उन्मूलितच्छिन्नविशीर्णशुष्कवृक्षेषु भस्मोपलकपरेषु तारोपविष्टा फलहानिकी भवेत् तु पुनः वामा नियमेन हंत्री भवेदित्यर्थः ॥ ३१५॥ गत्वेति ॥ यदि पुरतः अतिदूरं गत्वा पोदकी यस्याऽहश्यतां गच्छति तस्य क्षेमंकरी स्यात् यस्य सम्मुखमभ्युपैति तस्य पराजयः स्यात् ॥. ३१६ ॥ यदीति ॥ यदि प्रियं पांथमनुव्रजित्वा निवर्तमानस्य वितारा भवेत्तदा शुभावहा । यदि तारा एति तदा तेन समं प्रयातुं युक्तमन्यथा तद्रक्षा न स्यादित्यर्थः ॥ ३१७॥ ॥ भाषा॥ क्षति करे और कोई भय भी करै ।। ३१३ ॥ भवेति ॥ जो प्रत्यक्ष देवी उढ्ता होयकर भक्ष्य ग्रहण करके दक्षिण भागमें दूधके वृक्षों जाय बैठे तो गमनकर्ताकू अवश्य महान् ऋद्धि होय ॥ ॥ ३१४ ॥ उन्मूलितेति ॥ जो दक्षिणमांऊंकी जड जाकी उखड रही होय कव्यो होव सूत्रको होय ऐसे वृक्षनमें वा भस्म पाषाण ठीकरा इनमें बैठी होय तो फलकी हानि करै, और जो वो वामा होय तो निश्चयही फलकी हानि करै ॥ ३१५ ॥ गत्वेति ॥ जो पोदकी गमनकर्ताक अगाडी अत्यंत दूर जायकरके अदृश्य होय जाय तो ता पुरुषकू कल्याणके करबेबारी जाननी. और जाके सन्मुख आवे ताको पराजय करै ॥ ३१६ ॥ यदीति ॥ जो अपने प्यारे पांथकू पहुंचायबे जाय फिर वासू बोलके छोडके पीछकू बगदै Aho! Shrutgyanam
SR No.034213
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1828
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy