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________________ ( १२६ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । भक्ष्याभिलाषे निकटार्थसिद्धिर्भक्ष्यग्रहे स्यात्त्वरिता ततोपि ॥ भक्ष्योपयोगे तु फलंति कामा रिरंसया स्यात् प्रिययोषिदाप्तिः ॥ ७२ ॥ स्थाने प्रशस्ते गमनात्प्रशस्तमवाप्यते स्थानमवश्यमेव ॥ स्थानस्थितानां भवति प्रसिद्धिः सुस्थानसंस्थे विहगे नराणाम् ॥ ७३ ॥ शांतप्रदेशाभ्युपसर्पणेन प्र दक्षिणाभ्यागमनेन तद्वत् || भवेत्प्रवासेऽभिमतार्थसिद्धिः सुखं भवेत्खेलनचेष्टितेन ॥ ७२ ॥ ॥ टीका ॥ गोचितभूषणाप्तिः शरीरयोग्याभरणलाभं वदति ॥ ७१ ॥ भक्ष्याभिलाष इति ॥ भक्ष्यस्याभिलावे स्पृहाकरणे निकडा समीपस्था अर्थसिद्धिः स्यात् भक्ष्यग्रहे ततोऽपि निकटापि त्वरिता शीघ्रा अर्थसिद्धिः स्याद्भवेत् भक्ष्योपयोगे च कामा अभिलषितार्थाः फलंति रिरंसया रंतुमिच्छा रिरंसा तया प्रिया इष्टा या योषित्स्त्री तस्याः प्राप्तिः स्पात् ॥ ७२ ॥ स्थान इति ॥ प्रशस्ते स्थाने गमनादवश्यमेव स्थानमवाप्यते सुस्थान संस्थे विहगे स्थानस्थितानां नराणां प्रसिद्धिर्भवति ।। ७३ ।। प्रशांत इति ॥ देव्याः प्रशांत देशाभ्युपसर्पणेन प्रशांतप्रदेशे गमनेन प्रवासे अभिमतार्थसिद्धिभवेत् प्रदक्षिणाभ्यागमनेनापि तद्वत्पूर्वोक्तवज्ज्ञेयं खेलन चेष्टितेन सुखं भवेत् । ॥ भाषा ॥ भक्ष्याभिलाषे इति ॥ जो पोदकी पंखमाऊं, खुजालवेकी अभिलाषा करती होय तो निकटही अर्थसिद्धि जाननी और जो भक्ष्य पदार्थ ग्रहण करे होय तोभी शीघ्रही कार्यसिद्धि जा. : और जो रमणकर वेकूं इच्छा ननी और भक्ष्य पदार्थ वाके समीप होय तो वांछित कार्य फले कररही होय तो वांछित स्त्रीकी प्राप्ति करे ॥ ७२ ॥ स्थान इति ॥ जो पोदकी उत्तम सुंदरस्थानमें गमनकरती होय तो प्राणीकूं अवश्य उत्तम स्थान मिले और जो पक्षी उत्तम स्थान में बैयो होय तो स्थान में बैठे मनुष्यकूं बहुत वृद्धि करे ॥ ७३ ॥ प्रशांत इति ॥ पोदकी शांत देशके सन्मुख जाती होय तो परदेशमें मनुष्यकूं वांछित अर्थसिद्धि होय और जेमने भा गर्मे सन्मुख आवती होय तोभी वांछित अर्थसिद्धि होय और गमनकरवेवारेकूं खेलनचेष्टाकर Aho! Shrutgyanam
SR No.034213
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1828
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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