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________________ (९६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। स्निग्धपुष्पफलपल्लवद्रुमा शिष्टतोकसुखसंचरा समा ॥ सर्वतश्च सुतरां मनोरमा सा क्षमा शकुनदर्शने क्षमा ॥ ॥६॥ निवर्तनानीह च चक्रवर्तिप्रयोजने पंच दशोदितानि॥ सामन्तपृथ्वीभृदमात्यकार्येष्वाऽऽहुर्नव त्रीणि जनान्तराणि ॥ ७॥ ॥ टीका ॥ ढसत्त्वमिति दुष्टा मांसाशनाः सत्त्वाःप्राणिनो यत्र तत्तथा। पुनः कीहक अमनोरममिति न मनोरमं मनसो नाहादकमित्यर्थः ॥५॥ स्निग्ध इति ॥ शकनदर्शने शकुनावलोकने सा क्षमा वसुंधरा क्षमा समर्था कीदृशी स्निग्धपुष्पफलपल्लवमा इति स्निग्धाःसचिक्कणा नवीनत्वात् पुष्पफलपल्लवाः प्रतीता येष एवं विधा दुमा वृक्षाः यस्यां सातथा।पुनः कीदृशी शिष्टलोकमुखसंचरा इति शिष्टा मनःकालध्यरहिताःये जनाः तेषां मुखेनानायासेन संचरोसंचरणं यस्यां सा तथा पुनः कीदृशी समा इति अविषमा देवखातादिरहिता सुतरामतिशयेन सर्वतः सर्वस्मिन् प्रदेशे मनोरमा मनोहारिणीत्यर्थः॥६॥ निवर्तनानीति॥इह चक्रवर्तिप्रयोजनेचक्रवर्तिका. यदिशे पंचदशनिवर्तनानि उदितानि कथितानि सामंतपृथ्वीभृदमात्यकार्येष्विति स्वदेशनिकटवर्तिभूभृत्सामंतः पृथ्वीभद्राजा अमात्यः सचिवः सामंतश्च पृथ्वी. भच्च अमात्यश्चेति पूर्वमितरेतरद्वंद्वः ततः कर्मधारयः । एतेषां कार्येषु नव निवर्तनानि कथितानि जनांतराणामितरजनानां त्रीणि निवर्तनानि ॥ ७ ॥ ॥ भाषा ॥ . ष्टमांसके आहारकर्ता प्राणी जहां हायँ, और मनकू आलाद न करै भययुक्त होय ऐसी पृथ्वी जहां होय, तहां 'शकुन' देखनो नहीं ॥ ५ ॥ स्निग्ध इति ॥ चिक्कण नवीन पुष्प फल पल्लव जिनमें ऐसे वृक्ष जा जगह हायँ शुद्धमनके सजन मनुष्यन को सुखपूर्वक विचरनो जहां होय और समान होय, और सर्वदेशमें मन प्रसन्न करनेवाली होय ऐसी पृथ्वी शकनके देखनेमें योग्यहै ॥ ६ ॥ निवर्तनानीति ॥ या पृथ्वीमें चक्रवर्ती राजानके कार्यमें पंडद निवर्तन कहहैं, और अपने देशके निकटवर्ती ग्रामनको अधिपति होय सो सामंत और राजा, और मंत्री इनके कार्यमें नो निवर्तन कहेहैं, और मनुष्यनके कार्यमें तीन नि Aho! Shrutgyanam : i
SR No.034213
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1828
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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