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________________ ( २६ ) लिंगावहारणिय मणत्थं भएणइ- "अविकेवलगाहा" अवि संभावणे किं संभावयति इमं जतिवि तेणे व भवग्गहणेण केवल मुप्पाडेइ तहवि से लिंगं ण दिज्जइ तस्स वा अन्नस्स वा एस नियमो अणतिसइणो जो पुण अवहिणाणातिसती सो जाणइ ण पुण एयस्य थीणद्धी निदोदो भवति देह से लिंगं इतरहा न देइ लिंगाबहारेणं पुण कज्जमाणे अयमुपदेशो, देसवश्रोत्ति सावगो होहि थलग पाणादिवायादिनियत्तो पंचागुव्ययधारी ताणि वा ण तरसि दंसणं गेह दंसण सावगो भवाहित्ति भणितं भवइ अह एवं पि अणुणेज्जमाणो नेच्छई लिंगं मोत्त ताहे रातो सत्तमोत्तु पलायन्ति देशान्तरं गच्छन्तीत्यर्थः --थीणद्धि बल की प्ररूपणा इस प्रकार की गई है :वासुदेव में जो बल होता है उससे अाधा बल थीगद्धि निद्रा वाले में होता है । यह बल प्रथम संघयण वाले का जानना चाहिये । इस काल में सामान्य मनुष्य की अपेक्षा थीग द्धिनिद्रा वाले में दुगना, तिगुना एवं चौगुना बल होता है। ऐसे बल वाला साधु, ऋद्ध होने पर भी गच्छ का नाश न करे इसके लिये उसको लिंग पारंचो' करना चाहिये अर्थात् उसको प्रेमभाव से कहना चाहिये कि "तू साधुवेश छोड़ दे । तुझे चारित्र की प्राप्ति नहीं हुई है !" ऐसा कहने से यदि वह वेश छोड़ देता है तो ठीक है नहीं तो संघ को चाहिये कि वह मिलकर उसका वेश उतारले ! यदि अकेला कोई एक व्यक्ति वेश उतारने का प्रयास करता है तो वह दुष्ट साधु उसको Aho ! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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