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________________ ( २०२ ) णाणेइ वा विणाणेइ वा सुए वा पंडिच्चेर वा अभिक्षुहमुद्ध परिसा मझगए सिलाहेज्जा से विश्राणं परिमाहम्मिएसु उववज्जेजा ? जहासुमतीति ।" ___ --जो भिक्षु अथवा भिक्षणी पर पाखण्डियों की प्रशंसा करते हैं, जो निह्नवों की प्रशंसा करते हैं, उनके अनुकूल वचन बोलते हैं, उनके स्थान में प्रवेश करते हैं, उनके ग्रंथ शास्त्र, पद अथवा अक्षरमात्र की प्ररूपणा करते हैं, उनके पास कायक्लेश प्रादि तप करते हैं, संयम लेते हैं, ज्ञान विज्ञान प्राप्त करते हैं, उनके श्रु त ज्ञान या पाण्डित्य का गुणगान करते हैं एवं सम्मुख बैठकर भोले मनुष्यों की सभा में उनकी विरुदावली (प्रशस्ति गान) करते हैं वे 'सुमति' के समान परम अधार्मिकत्व को प्राप्त करते हैं। प्रश्न १४८--मनक नामक अपने पुत्र के स्वर्ग में चले जाने पर श्री शय्यम्भवसूरि ने जो अश्रुपात किया था वह हर्ष जन्य था अथवा शोक जय ? उत्तर-- वह अथ पात शोक जन्य था ऐसा कुछ महानुभाव कहते हैं, परन्तु यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि श्रतकेवली के समान उन महापुरुष को उस प्रकार के शोक की उत्पत्ति होना नितान्त असम्भव है। अहो! इस बालक ने थोड़े ही समय में पाराधना की । ऐसे विचार पूर्वक हर्ष से ही उनके अश्रुपात हुआ था। श्री दशवैकालिक सूत्र की नियुक्ति में कहा है कि-- "आणंद अंसुपायं का ही सज्बंभवा तहि थेरा। जसभद्दस्स य पुच्छा कहणा य वियारणा संधे ॥" Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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