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________________ . ( १८४ ) है तो सम्पूर्णता से श्र तज्ञान के प्रावरण की सम्भावना रहती है एवं जिस प्रकार अवधि प्रादि ज्ञान का सम्पूर्ण प्रावरण होता है उसी प्रकार उसी अवधि प्रादि ज्ञान के समान श्रत ज्ञान भी भादिकाल वाला होना चाहिये, अनादिकाल वाला नहीं । इस दृष्टि से तृतीय चतुर्थ भङ्ग की सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान- "सच्चजीवाणं पि" इत्यादि वचन से समस्त जीवों का मतिज्ञान एवं श्र तज्ञान का अनन्तवा भाग सर्वदा अनावृत ही रहता है । यह अनन्तवां भाग अनेक प्रकार का होता है। सर्व जघन्य चैतन्य मात्र, सर्वोत्कृष्ट श्रुतज्ञानावरण एवं थिणद्धि निद्रोदय के समय भी प्राच्छादित नहीं होता है। क्योंकि वैसा ही जीव का स्वभाव होता है । और यदि वह अनन्तवां भाग भी उससे प्राच्छादित हो जाय तो जीव के स्वभाव का त्याग होने से अजीवत्व प्राप्त हो जाता है। क्योंकि जीव चैतन्य लक्षणवाला है इसीसे प्रबल श्रत ज्ञानावरण एवं थिणद्धि निद्रोदय के समय चैतन्य मात्र भी प्राच्छादित हो जाय तो जीव के स्वभाग का परित्याग होने के कारण अजीवता ही प्राप्त होती है। यह कभी भी न देखा न इष्ट हो है कि प्रत्येक वस्तु अपना स्वभाव छोड़ देती हो। इस सम्बन्ध में दृष्टान्त कहते है कि "सुवित्यादि"-सघन बादल आसमान में छा जावें तो भी चन्द्र सूर्य की प्रभा तो रहती ही है। यहां यह कहना है कि जिस प्रकार अत्यन्त सघन बादलों से सूर्य चन्द्र की प्रभा का एकान्ततः नाश नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ का अपना स्वभाव दूर होना सर्वथा अशक्य है, उसी प्रकार जीव के एक एक प्रदेश अनन्तानन्त शानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के परमाणुमों से अत्यन्त मावृत हो जावें, फिर भी उनमें एकान्ततः चैतन्य मात्र का, Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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