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________________ ( १७६ ) णाणं तु अक्षरं जेण खरति न कयाइ तं तु जीवा । तो तरस उशत भागो न वरिज्जति सच्च जीवाणं ।। जिस कारण से वह ज्ञान कभी भी जीव से पृथक नहीं होता है न क्षर (क्षय) होता है उसी कारण से ज्ञान को अक्षर कहा जाता है यथाः- (न क्षरति इति अक्षरः) शंका-ज्ञान जीव से कभी भी पृथक् नहीं होता यह कैसे जाना जा सकता है ? समाधान-उस अक्षर (ज्ञान) का अनन्तवा भाग संसारस्थ समस्त जीवों के अत्यन्त प्रबल ज्ञानावरण के उदय से भी प्राच्छादित नहीं होता। जिससे ज्ञान का अनन्त भाग नित्य उद्घाटित है अर्थात् नित्य अप्रावृत (अनाच्छादित) है वह किससे आच्छादित होता है ? इस सम्बन्ध में पुनः कहा है। किइक्केको जियदेसो नाणावरणस्स हुतणं तेहिं । . अविभागेहि आत्ररितो सबजियाणं जिणे मोत्त। -केवल ज्ञानियों को छोड़कर संसारी समस्त जीवों के यात्म प्रदेश, ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्त अविभक्त परिच्छेदों से आच्छादित है। .. यदि ऐसा है तो ज्ञान का अनन्त भाग नित्य अनावृत रहता है. ऐसा क्यों कहा गया ? इस सम्बन्ध में समाधान इस प्रकार हैजह पुण सो विवरेज्जइ तेणं जीवो अजीव गच्छे। सुट्ट वि मेहसमुदये होइ पहा चंद सूराणं ।। Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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