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________________ । १७७) मालम्बन कर जीव का जो मनन रूप व्यापार चलता है, यह भावमन कहलाता है, जिनके सम्बन्ध में नन्दी अध्ययन में वर्णिकार इसी प्रकार कहते हैं कि-- "मणपज्जत्ति नाम कम्मोदयतो जोगी मणी दच्चे घेतु । मणतण परणामिया दव्या दचमणो भण्णइ" ॥ "जीवो पुण मणण परिणाम किरिया तो भावमणी कि भणिय होइ मणदव्वालम्बगो जीवस्य मण्णचावारो भात्र मणो मन्न इति" - इसका अर्थ ऊपर दे दिया गया है । द्रव्य मन के बिना असंज्ञी के समान भावमन नहीं होता। किन्तु भवस्थ केवली के समान भावमन के बिना भी द्रव्यमन होता है । इसके सम्बन्ध में प्रमाण स्वरूप लोकप्रकाश में कहा है कि: द्रव्यचित्त बिना भावचित्त न स्यादर्स शिवत् । बिनाऽपि भावचित्तं तु द्रव्यतो जिनवद भवेत् ॥ इस प्रकार भावमन के बिना भी भवस्थ केवली के समान अव्यमन होता है। ऐसा प्रज्ञापना वृत्ति में भी कहा है। ऐसा कहने से समस्त एकेन्द्रियादि प्रसंज्ञि जीवों के द्रव्यमन का अभाच होने से भावमन नहीं है यह स्पष्ट है। तथा जब 'भाव मन' शब्द से चैतन्य मात्र विवक्षा की जाती है तो द्रव्यमान के बिना भी 'भावमन' होता है एवं बह असंज्ञी जीवों के भी है ही। इसी अभिप्राय से श्रीभगवती सूत्र की वृत्ति में भी भावमन से Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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