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________________ इस प्रकार कि-पाश्रव से बन्ध होता है एवं बन्ध द्वारा पुण्य और पाप बनते हैं, जो संसार के कारण भूत हैं । तथा संवर एवं निर्जरा ये दोनों मोक्ष के कारण हैं । संसार के कारणभूत पुण्य पाप तत्वों के परित्याग से ही संवर एवं निर्जरा की प्रवृत्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं । और सम्पूर्ण निर्जरा से मोक्ष होता है। इसलिये इसको प्राप्त करने के लिये उपयुक्त छः तत्त्व भी आवश्यक हैं ऐसी स्थिति में नव तत्त्व कहने में कोई दोष नहीं । नव तत्त्व की यह समस्त व्याख्या स्थानाङ्ग वृत्ति के आधार पर की गई है, अतः विशेष जिज्ञासु को वहीं से जानना चाहिये । प्रश्न १३०-षडशीतिक कर्म ग्रन्थ में “मणणाण चक्खुवज्जा अणाहारे” इस गाथा में मनःपर्यवज्ञान एवं चक्षु दर्शन के बिना शेष दश उपयोग अनाहारक में होते हैं। इस कथन से प्राचार्य भगवान ने विग्रह गति आदि में चक्षु दर्शन का निषेध किया हैं एवं अचक्षु दर्शन स्वीकृत किया है। यह कैसे सम्भव हो सकता है; क्योंकि अनाहारक अवस्था में एक भी इन्द्रिय नहीं होने से चक्षु अचक्षु दोनों का संभव नहीं है। अर्थात जिस प्रकार विग्रह गति में चक्षु इन्द्रिय का उपयोग नहीं होता वैसे ही शेष इन्द्रियों का भी नहीं होता । क्योंकि उस समय एक भी इन्द्रिय की निष्पत्ति नहीं होती। उत्तर - इन्द्रियों के प्राश्रय के बिना सामान्य उपयोग मात्र Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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