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________________ ( १४८ ) उत्तर- परिष्ठापन अर्थात् सर्वथा त्याग करना । पच्चक्खाण की किये विगय आदिका मूलतः त्याग करना ही परिट्ठावणियागार कहलाता है। दूसरे स्थान पर इन पदार्थों का त्याग किया जाय तो बहुदोष की सम्भावना रहती है। आगमिक न्याय से आश्रित करने पर गुण की सम्भावना रहती है । इसलिये गुरु आज्ञा से उपभोग करने से पच्चक्खाण का भंग नहीं होता है। ऐसा प्राशय प्रवचन सारोद्धार की टीका में है। परठने की वस्तु किसको देना, इस सम्बन्ध में कहा है एक साधु प्रायम्बिल वाला हो एवं दूसरा चतुर्थभक्त वाला हो चतुर्थभक्तिक को देना चाहिये। चतुर्थभक्तिको में बाल एवं वृद्ध हो तो बालक को देना । वह बालक भी सशक्त एवं अशक्त हो तो अशक्त को देना, भ्रमण शील एवं बैठा रहने वाला हो तो भ्रमणशील को देना, वह भ्रमणशील भी यदि प्रापर्णक ( आगन्तुक ) एवं वहाँ रहने वाला होतो आगन्तुक को देना एवं आगन्तुक के अभाव में वहीं के रहने वाले को देना चाहिये। इस प्रकार चार पदों से १६ भंग होते हैं । अन्तिम भंग तो वृद्ध सशक्त अभ्रमणशील एवं वहीं रहने वाले का होता है। इनमें पहले भंग वाले को देना, उसके अभाव में दूसरे भंग वाले को देना, इसीप्रकार अन्तिम भंग वाले को भी देना चाहिये। ऐसे ही प्रायम्बिल के समान छट्ठवाले में एवं अट्ठम भक्त वाले में १६ भंग होते हैं। तथा प्रायम्बिल एवं निविकृतिक में भी १६ भंग होते हैं। परिष्ठायनिक पदार्थ न केवल आयम्बिल वाले को ही देना Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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