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________________ ( १४४ ) उत्तर-- तप के अादि अन्त में एकाशन करने का नियम नहीं है, ऐसा जाना जाता है। चतुर्थ भक्त अर्थात् चार समय खाने का जहाँ त्याग हो वह चतुर्थभक्त कहाता है । यह चतुर्थभक्त शास्त्रोक्त होने से नियम क्यों नहीं है ? यदि ऐसी शंका है तो सुनो ! चतुर्थभक्त यह तो व्युत्पत्ति मात्र है। जैसे गच्छतीति गौ:-जाती है वह गाय, इस व्युत्पत्ति के समान चार बार जो खाया गया वह चतुर्थभक्त, इस प्रकार यह व्युत्पत्ति है । इसका तात्पर्य यह है कि चतुर्थभक्त यह तो उपवास की संज्ञा है । __श्री भगवती सूत्र की टीका के द्वितीय शतक के अन्तर्गत चतुर्थ उद्देश में कहा है कि-- "चउत्थं चउत्थेणं" चतुर्थ भक्तं यावद् भक्तं त्यज्यते तत्र तत् चतुर्थमियं चोपवासस्य संज्ञा । एवं षष्ठादिकमुपवास द्वयादेरिति "अन्तकृदशावृत्तौ अप्युक्तंरत्नावली तपोऽधिकारे, चतुर्थमेकेन उपवासेन षष्ठं द्वाभ्याम्, अष्टमं त्रिभिरिति" किञ्चयदि चतुर्थादेरावन्तदिनयो रेकाशनकनियमो भवेत् त्तर्हि" वासा वासं पज्जोसवियाण छट्ठभत्तियस्स कप्पंति दोगोअरकाला" इत्यादि कल्पसूत्र पाठो विरुध्येत् । --चार समय जिसमें भोजन का त्याग किया जाय वह चतुर्थ भक्त, चतुर्थ यह उपवास की संज्ञा है इसी प्रकार दो दो उपवास का नाम छठ्ठ, है अन्तक्रद्दशा वृत्तिमें भी रत्नावली तप के अधिकार में एक उपवास के लिये चतुर्थ, दो के लिये छट्ट, तीन के लिये अट्ठम कहा है । यदि चतुर्थयादि के प्रथम एवं Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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