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________________ ( १३१ ) क्योंकि वे तो भगवान के कहे हुए निरपवाद अनुष्ठान के करने वाले हैं, उनका इसमें तनिक भी हठवाद नहीं है । उनकी आचार विषयक भगवान की आज्ञा में सर्वथा हठवाद का प्रभाव है । इसके सम्बन्ध में श्री प्राचाराङ्ग सूत्र के छठे अध्ययन के तृतीय उद्देशय में जिनकल्पिक एवं स्थविरकूल्पिकादि समस्त मुनियों को जिनाज्ञा के अनुसरण करने वाल एवं सम्पग् दर्शनी कहा है। कहा है कि "जिन कल्पिक कश्चिदेककल्पधारी द्वौ त्रीन् वा faefi स्थविर कल्पको वा मासार्थमासापक स्तथा विकृष्टविष्टतपरवारी प्रत्यहभोजी क्रूरगड्ड को वा एते सर्वेऽपि तीर्थकुद्वचनानुसारतः परस्पराऽनिन्दया दर्शिनः ||" सम्यक्त्व - जिनकल्पिक कोई एक वस्त्र धारण करता है, कोई दो या तीन वस्त्र धारण करता है, एवं स्थविर कल्पी कोई मासक्षमण या अर्धमासक्षमण, कोई विकृष्ट तीन, चार या पांच उपवास, कोई प्रविकृष्ट उपवास करता हैं अथवा कूरगडु के समान नित्य भोजन करता है । ये सभी साधु तीर्थकरों के वचनानुसार ही परस्पर अनिन्दा के भाव से सम्यग् दर्शी होते हैं ! इस सम्बन्ध में और भी कहा है कि- "जो वी दुवत्थ तिवत्यो एगेण अचेलगो व संथर । न हु ते हीलंति परं सव्वे वि हुते जिणायार ॥" -- जो कोई भी साधु दो तीन एक वस्त्र धारण कर Aho ! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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