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________________ गंका-यदि ऐसा है तो भगवतो सूत्र के तृतीय शतक के अन्तर्गत प्रथम उद्देश्य में तिष्यक साधू के सम्बन्ध में, जो इन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुया है, “सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणं सित्ति" यह पाठ कैसे संगत हो सकता है ? समाधान-इस सूत्र से एक ही अपने स्वामी के विमान में जिस देव को जितना प्रदेश (स्थान) मिला हो, वह प्रदेश (स्थान) उस देव का अपना विमान कहलाता है। इसी कारण से काली देवी का चमरचंचा राजधानी का एक देश भवन के रूप में हो कहा है। इसी प्रकार चन्द्रप्रभा एवं सूर्यप्रभा देवियों का भी चन्द्रादि विमानगत एक देश ही उनका अपना-अपना विमान कहा है ऐसा जानना चाहिये। प्रवचन में अपरिगृहोत देवियों के हो विमान पृथक्-पृथक् कहे गये हैं। यह सम्पूर्ण अधिकार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की टोका में देखना चाहिये। प्रश्न ४७-परमाधार्मिक देव भव्य हो हैं। यह प्रघोष सत्य है अथवा असत्य ? उत्तर -परमाधामिक देव भव्य हो हैं, यह प्रघोष सत्य ही ज्ञात होता है । अभव्यकुलक में कहा है कि"तायत्तस सुरत्त परमाहम्मियत्तिं जुयलमणुअत्त।" अभव्य जीव त्रायस्त्रिशक देवत्व, परमाधार्मिक देवत्व एवं यूगलिक देवत्व नहीं प्राप्त कर सकते। ये परमाधार्मिक देव पूर्व भव में किये हुए पाप का स्मरण कराते हुए नारकीयों की विडम्बना करते हैं। Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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