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________________ ( ५२ ) और सूर्य का जो अन्तर पहिले कहा गया है, वहीं इस समय चन्द्र प्रज्ञप्ति आदि में दिखाई देता है । चन्द्र प्रज्ञप्ति आदि सूत्रों के अनुसार इनको स्थिति सूची श्रेणी से ही सम्भव है वलयाकार से नहीं । यह प्रमाण २४ वें सर्ग में है । इस सम्बन्ध में कुछ आचार्य इनकी स्थिति परिरय श्रेणी की मानते हैं । उनके मत को प्रतिपादित करने वाली “ चउयालसयं पढमिल्लुयाए " ये दो गाथाएं हैं। इस विषय का बहुत ही विस्तार है । उस विस्तार के ज्ञान की इच्छा रखने वाले सज्जनों को संग्रहणो वृत्ति एवं लोक प्रकाश का अवलोकन करना चाहिये । "" श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने भी योग प्रकाश के चौथे प्रकाश की टीका में " परिरय श्रेणी ऐसा अभिप्राय व्यक्त किया है । वह इस प्रकार है : यथा: - " मानुवोत्तरात् परतः पञ्चाशतसहस्रः परस्परमन्तरिताः चन्द्रान्तरिताः सूर्वाः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः मनुष्य क्षेत्रीय चन्द्रसूर्य प्रमाणात् यथोत्तरं क्षेत्रपरिधे या संख्येया वर्धमानाः शुभलेश्याग्रह नक्षत्र तारा परिवारा घण्टाकाराः असंख्येया स्वयंभूरमणात् लक्ष्योजनान्तरिताभिः पंक्तिभिः तिष्ठन्तीति । " - मानुषोत्तर पर्वत से पचास हजार योजन से परस्पर अन्तरित चन्द्रान्तरित सूर्य एवं सूर्यान्तरित चन्द्र मनुष्य क्षेत्रीय चन्द्र सूर्य प्रमाण से उत्तरोत्तर क्षेत्र परिधि की वृद्धि से संख्या बद्ध वृद्धि को प्राप्त हुए शुभ लेश्या ग्रह नक्षत्र एवं ताराम्रों के Aho ! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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