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________________ जैन-पुरातत्व ८५ बनी हुई है, इसका उल्लेख चीनी-यात्रीने नहीं किया, पर व्यापक उल्लेख में इसका अन्तर्भाव स्वतः हो जाता है। सुदर्शनका सौन्दर्य अनुपम था। दधिवाहन राजाकी रानी अभयाकी इच्छापूर्ति न कर सकनेके कारण इनको कुछ क्षणतक लौकिक कष्ट सहन करना पड़ा, बादमें मुनि हो गये। प्रतिशोधकी भावनासे उत्प्रेरित होकर अभयाने, जो मरकर व्यंतरी हुई थी, मुनिपर उपसर्ग' किये । समभावके कारण सुदर्शनको केवलज्ञान हो गया। यह घटना पाटलिपुत्रमें घटी। प्रथम घटनाका सम्बन्ध चम्पासे है। द्वितीय घटनाके स्मृतिस्वरूप, पटनामें एक छतरी व चरण विद्यमान हैं। यहाँपर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब मगध व तिरहुत देशमें श्रमण संस्कृतिका प्राबल्य था, जैसा कि स्मिथ साहब के वक्तव्यसे सिद्ध है "एक उदाहरण लीजिए-जैन-धर्मके अनुयायी पटनाके उत्तर वैशालीमें और पूर्व बंगाल में आजकल बहुत कम हैं; परन्तु ईसाकी सातवीं सदीमें इन स्थानोंमें उनकी संख्या बहुत ज्यादा थी।" उन दिनों अपने आदरणीय महामुनियोंके और भी स्मारक अवश्य ही बनवाये होंगे, परन्तु या तो वे कालके द्वारा कवलित हो गये या बहुसंख्यक अवशेषोंको हम स्वयं भूल गये। स्मिथने एक स्थानपर ठीक ही लिखा है कि “उसने (श्यूांन् च्युअाङ) ईसाकी सातवीं सदीमें यात्रा की थी और बहुतसे जैन स्मारकोंका हाल लिखा, जिनको लोग अब भूल गये।" अागे डाक्टर विन्सेण्ट ए. स्मिथ लिखते हैं कि पुरातत्त्व गवेषियोंने जैन-धर्म व संस्कृतिका समुचित ज्ञान न होने के कारण, उच्चतम जैनाश्रित कलाकृतियोंको बौद्ध घोषित कर दी। तत्रैव सुदर्शन श्रेष्टि महर्पिरभया राजया व्यन्तरीभूतया भूयस्तरमुपसर्गतोऽपि न क्षोभमभजत् । विविधतीर्थकल्प, पृष्ट ६६ । वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ, पृष्ठ २३३ । वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ, पृष्ठ २३४ । . Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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