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________________ खण्डहरोंका वैभव और गत वर्ष कौशाम्बीके खंडहरमें भी एक मूर्ति लेखकद्वारा देखी गई है । दायीं ओर गोमेध यक्ष और बायीं ओर अंविका अपने बालकों सहित विराजमान है। मध्यमें आम्र-वृक्ष, उसकी दो डालें, मध्यमें जिनमूर्ति (मगधकी मूर्तिमें शंखका चिह्न भी स्पष्ट है) होती है । इस शैलीका प्रादुर्भाव कुषाणोंके समयमें हुआ जान पड़ता है। कारण कि कौशाम्बीकी मूर्तिका पत्थर मथुराका है और कुषाणयुगकी वस्तुओंमें वह निकली है । भू-गर्भशास्त्रकी दृष्टि से भी प्राप्ति स्थानका इतिहास कुषाण युगसे सम्बद्ध है। मूर्तिकी यह परम्परा १४-१५ शताब्दी तक चली। इसका विकास महाकोसल तक, उधर मगध तक हुआ है। महाकोसल में इस ढंगकी दर्जनों मूर्तियाँ मिलती हैं। अम्बिकाकी वृक्षपर झूलती हुई, सिंहारूढ़, सयक्ष, साधारण स्त्री-समान अादि कई मूर्तियाँ मिलती हैं। पर उनमें दो बालक, आम्रलुम्ब, सिंह और आम्रवृक्ष ज्योंका त्यों है। इनमेंसे कुछ रूप स्वतन्त्र महाकोसलीय हैं। गुजरात, काठियावाड़ ( ढंकपर्वतकी गुफा में ) इलोरा आदि कई स्थानोंपर इनकी मान्यता व्यापक है। चक्रेश्वरीदेवीकी भी दो-तीन प्रकारकी प्रतिमा मिलती हैं। उत्तरभारतकी चक्रेश्वरी गरुड़वाहिनी, चतुर्भुजी और अष्टभुजी होती हैं। चतुर्भुजी और वाहन-विहीन भी मिलती हैं। महाकोसलमें तो चक्रेश्वरीका स्वतन्त्र मन्दिर है। चक्रेश्वरी गरुड़पर विराजित है और मस्तकपर युगादिदेव हैं । यह मन्दिर बिलहरीके लक्ष्मणसागरके तटपर है। राजघाट (बनारस) की खुदाईसे भी चक्रेश्वरीकी प्रतिमाका एक अवशेष निकला है । भारतकलाभवनमें सुरक्षित है । . प्राचीनकालीन जितनी अधिक और कलापूर्ण अम्बिकाकी मूर्तियाँ मिलती हैं, उतनी ही मध्यकालीन पद्मावती की। वह पार्श्वनाथजीकी पाटन, प्रभासपत्तन, शत्रुजय और विन्ध्याचल आदि कई स्थानोंमें पद्मावतीकी बैठो हुई मूर्तियाँ तो काफ़ी मिलती हैं, पर खड़ी Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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