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________________ ७२ . खण्डहरोंका वैभव . ४ जिनधर्मवच्छलौ ख्यातौ । उद्योतनसूरेस्तौ । शिष्यौ-श्रीवच्छ बलदेवौ ॥ ५ सं० ९३७ अषाढा ।। ११वीं शताब्दी श्री मगनलाल दर्जीके संग्रहकी धातुमूर्तियाँ अभी ही प्रकाशमें आई हैं, उसमें जो मूर्तियाँ हैं, उनकी संख्या तो अधिक नहीं है, पर ग्यारहवीं शतीके बाद या उससे कुछ पूर्व मूर्तिनिर्माणमें सामयिक परिवर्तन होने लगे थे, उनके क्रमिक विकासपर प्रकाश मिलता है। इसके समर्थनमें, लेखयुक्त अन्य प्रतीकोंकी भी अपेक्षा है, इनसे ज्ञात होगा कि हमारी धातुशिल्प परम्परा कितनी विकसित रही है। इनको मैं प्रान्तीय कलासीमामें न बाँधकर भारतीय संस्करण कहना अधिक उपयुक्त समम गा। श्वेताम्बर-जैन-परम्परामें निवृत्तिकुलीन प्राचार्य द्रोणाचार्यका स्थान महत्त्वपूर्ण है। ये राजमान्य प्राचार्य गुर्जरेश्वर भीमके मामा थे । श्री अभयदेवसूरि रचित नवांगवृत्तियोंके संशोधनमें आपने सहायता दी यो। ये स्वयं भी ग्रन्थकार थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित धातुमूर्ति पर इस प्रकार लेख खुदा है "देवधर्मायं निवृतिकुले श्री द्रोणाचार्यै : कारितो जिनत्रयः । संवत् १००६" स्व० बाबू पूर्णचंद्रजी नाहरके संग्रहमें सं० १०११, ३, 'कडी' के जैन मंदिरमें शक ६१० (वि० १०४५), गोडीपार्श्वनाथ मंदिरमें (बम्बई) वि० जैनलेखसंग्रह भा० १ लेखांक १७०६ । मगनलाल दर्जीके सग्रहसे प्राप्त हुई। जैनलेखसंग्रह, भा० १, ले० १३४, पृ० ३१ । जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह भा० १, पृ० १३२। Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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