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________________ खण्डहरोंका वैभव इसकी मोड़ में अन्तर अवश्य पड़ेगा, पर बहुत थोड़ा । उपर्युक लेखमें प्रतिष्ठा कालका उल्लेख नहीं है, अतः लिपिके आधारपर ही कल्पना की जा सकती है । श्रीशाहने इसका श्रानुमानिक काल ई० स० ५५० लगभग स्थिर किया है । ७० 1 प्रतिमा कलाका उच्चतम प्रतीक है । देखकर अन्तर्नयन तृप्त होते हैं । मस्तकपर मुकुट है | कर्णमें कुंडल, हाथोंमें बाजूबन्द व कड़े, गलेमें मौक्तिकमाला, कमरबन्द आदि राजकुमारोचित श्राभूषणोंसे विभूषित है । मुखमुद्रा प्रशान्त व प्रसन्न है । इसकी निर्माणशैली, सापेक्षतः स्वतंत्र जान पड़ती है । इसी प्रकारकी धातुमूर्ति, आठवीं शतीकी, सं० १६५६ में कालके समय प्राप्त हुई थी, जो वर्तमानमें पिंडवाडा में सुरक्षित हैं ? । प्रतिमा दिनाथ भगवान् की है। चार फुटसे कुछ अधिक ऊँची है । ऐसी एक और प्रतिमा है, जिसपर इसप्रकार पाँच पक्तिमें लेख उत्कीर्णित है१ ॐ नीरागत्वादिभावेन सर्व्वज्ञत्व विभावकं 1 ज्ञात्वा भगवतां रूपं, जिनानामेव पावनं ॥ दो - वयक - २ यशोदेव देवभिरिदं जैनं कारितं युग्ममुत्तमं ॥ ३ भवशतपरंपराजित - गुरुकरसो (जो ) ......स... वर दर्शनाय शुद्धसज्झनचरणलाभाय ॥ ४ संवत ७४४ । ५ साक्षात्पितामहेनेव, विश्वरूपविधायिना । शिल्पिना शिवनागेन कृतमेतजिनद्वयम् ॥ १ " इसका पूर्ण परिचय " नागरी प्रचारिणी पत्रिका" (बनारस) के नवीन संस्करण भा० १८, अं० २, पृ० २२१-२३१में, मुनि श्री कल्याणविजयजी द्वारा दिया गया है । वीतरागत्वादि गुणसे सर्वज्ञत्व प्रकट करानेवाली, जिनेश्वर भगवन्तों Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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