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________________ जैन- पुरातत्व शाखाओं का यथावत् अध्ययन न किया जाय, क्योंकि तक्षणकला और उसकी विशेषतामें परस्पर साम्य होते हुए भी, प्रान्तीय भेद या तात्कालिक लोकसंस्कृति के कारण जो वैभिन्न्य पाया जाता है, एवं उस समय के लोक जीवनको शिल्प कहाँतक समुचित रूपसे व्यक्त कर सका है, उस समयकी वास्तुकला विषयक जो ग्रन्थ पाये जाते हैं, उनमें जिन-जिन शिल्पकलात्मक कृतियों के निर्माणका शास्त्रीय विधान निर्दिष्ट है, उनका प्रवाह कलाकारोंकी पैनी छैनी द्वारा प्रस्तरोंपर परिष्कृत रूपमें कहाँतक उतरा है ? यहाँतक कि शिल्पकला जब तात्कालिक संस्कृतिका प्रतिबिम्ब है, तब उन दिनोंका प्रतिनिधित्व क्या सचमुच ये शिल्पकृतियाँ कर सकती हैं ? आदि अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्योंका परिचय, तलस्पर्शी अध्ययन और मनन के बाद ही सम्भव है । जैन - अवशेषों को समझने के लिए सारे भारतवर्यमें पाये जानेवाले सभी श्रेणीके अवशेषों का अध्ययन भी अनिवार्य है, क्योंकि जैन और जैन शिल्पात्मक कृतियोंका सृजन जो कलाकार करते थे, वे प्रत्येक शताब्दीमें ग्रावश्यक परिवर्तन करते हुए एक धारामें बहते थे, जैसा कि वास्तुकला के अध्ययनसे विदित हुआ है । प्रान्तीय कलात्मक अवशेषों को ही लीजिए, उनमें साम्प्रदायिक तत्त्वोंका बहुत ही कम प्रभाव पायेंगे, परन्तु शिल्पियोंकी जो परम्परा चलती थी, वह अपनी कलामें दक्ष और विशेषरूपसे योग्य थी । मध्यकालके प्रारम्भिक जो अवशेष हैं उनको बारहवीं शतीकी कृतियों से तौलें तो बिहार, मध्यप्रान्त और बंगालकी कलामें कम अन्तर पायेंगे । मैंने कलचुरि और पालकालीन जैन तथा जैन प्रतिमाओं का इसी दृष्टिसे संक्षिप्तावलोकन किया है, उसपर से मैंने सोचा है कि १० -१२ तक जो धारा चली - वही अन्य प्रान्तोंको लेकर चली थी, अन्तर था तो केवल बाह्य आभूषणों का ही — जो सर्वथा स्वाभाविक था । तात्पर्य यह है कि एक परम्परामें भी प्रान्तीय कला भेदसे कुछ पार्थक्य दीखता है । प्राचीन लिपि और उनके क्रमिक विकासका ज्ञान भी विशेष रूपसे अपेक्षित है। मूर्त्तिविधान के अनेक अंगोंका ठोस अध्ययन होना अत्यंत Aho! Shrutgyanam ५५
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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