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________________ खण्डहरोंका वैभव दृष्टिसे पुरातत्त्वकी कृतियाँ तीसरी श्रेणी में आती हैं । कारण कि इसमें भावव्यक्तीकरणके लिए बहुत मोटे अाधारका सहारा लेना पड़ता है । इस कलासे दो लाभ होते हैं । एक वह आध्यात्मिक उन्नतिमें सहायता करती है और दूसरी अपने युगकी विशेषताओंको सुरक्षित रखती हुई भावी उन्नतिका भी सूक्ष्म संकेत करती है । शाश्वत सत्यकी अोर उत्प्रेरित करनेवाली भाव-परम्परा अाधार तो चाहेगी ही। इसमें ऐतिहासिक संकेत है । पार्थिव कला प्राध्यात्मिक प्राणसे धन्य हो जाती है । न केवल वह अानन्द ही देती है, पर शाश्वत सौंदर्यकी ओर खींच ले जाती है । इसीलिए त्याग प्रधान आदर्शपर जीवित रहनेवाली श्रमण-संस्कृतिमें भी रूपशिल्प की परम्पराका जन्म हुआ। जैन-पुरातत्त्वका अध्ययन अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है। अभीतक इस विषयपर समुचित प्रकाश डालनेवाली सामग्री अन्धकाराच्छन है। अजैन विद्वानोंके विवरण हमारे सम्मुख हैं, जो कई खंडहरोंपर लिखे गये हैं, परन्तु वे इतने भ्रान्तिपूर्ण हैं कि उनमें सत्यकी गवेषणा कठिन है, कारण कि जिन दिनों यह कार्य हुआ उन दिनों विद्वान जैन-बौद्धका भेद ही नहीं समझते थे-अाज भी कम ही समझते हैं । अतः यह सम्मिश्रण अध्यवसायी विद्वान ही पृथक कर सकते हैं। जैनोंने कलाके प्रक शमें कभी भी अपने उपकरणोंको नहीं देखा। अजैनोंने इन्हें धार्मिक वस्तु समझा, परन्तु जैन-तीर्थ-मन्दिर और मूर्ति केवल धार्मिक उपासनाके ही अंग नहीं हैं, परन्तु उनमें भारतीय जनजीवनके साथ कला और सौंदर्यके निगूढ तत्त्व भी सन्निहित हैं । विशुद्ध सौंदर्यकी दृष्टि से ही यदि जैन-पुरातन अवशेषों को देखा जाय तो, उनकी कल्पना, सौष्ठव और उत्प्रेरक भावनात्रोंके आगे नतमस्तक होना पड़ेगा। बिना इनके समुचित अध्ययनके भारतीय शिल्पका इतिहास अपूर्ण रहेगा। प्रसंगत: एक बातका उल्लेख मुझे कर देना चाहिए कि जैनोंने न केवल पूर्व परम्परामें पली हुई शिल्प-कला और उनके उपकरणोंकी ही रक्षा की, अपितु सामयिकताको ध्यानमें रखते Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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