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________________ ४४ खण्डहरोंका वैभव पड़ेगा, पर विशुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिसे कला-समीक्षकोंने मोहन-जो-दड़ों एवं हरप्पा माना है। इस युगके पूर्व–जहाँतक समझा जाता हैबाँस, लकड़ी और पत्तोंकी झोपड़ियोंका युग था। वह अधिक महत्त्वपूर्ण था। उस सामान्य जीवनमें भी संस्कृति थी। जीवन सात्विक भावनाओंसे श्रोत-प्रोत था। प्रकृतिकी गोदमें जो वैचारिक मौलिक सामग्री मिलती है, उसे ही कलाकार जनहितार्थ कलोपकरण द्वारा मूर्त रूप देता है । इस प्रकार दैनन्दिन वास्तुकलाका विकास होता गया, परन्तु आजसे तीन हज़ार वर्ष पूर्वकी विकसित वास्तु प्रणालोके क्रमिक इतिहास पर प्रकाश डालने वाली मौलिक सामग्री अद्यावधि अनुपलब्ध-सी है। यद्यपि प्रासंगिक रूपसे वेद, ब्राह्मण और आगम तथा जातकोंमें संकेत अवश्य मिलते हैं किन्तु वे जिज्ञासा तृप्त नहीं कर सकते । मोहन-जो-दड़ो एवं हरप्पा अवशेषोंसे ही सन्तोष करना पड़ रहा है। शिल्प द्वारा स्तुतिका समर्थन ऐतरेय ब्राह्मणसे होता है- ओं शिल्पानी शसति देवशिल्पानि ।” शिशुनाग वंशके समय निःसन्देह भारतीय वास्तु प्रणालिका उन्नतिके शिखरपर ग्रारूढ़ थी, बल्कि स्पष्ट कहा जावे तो उन दिनों भारत और बेवीलोनका राजनैतिक सम्बन्धके साथ कलात्मक आदान-प्रदान भी होता था, जैसा कि आज भी बेवीलोनमें भारतीय शिल्प-कलासे प्रभावित अवशेष पर्याप्त मात्रामें विद्यमान हैं । मौर्य, सुंग-कालकी कलाकृति एवं खण्डहरोंके परिदर्शनसे स्पष्ट हो जाता है कि उन दिनों प्राणवान शिल्पियोंकी परम्परा सुरक्षित थी । यदि मानसारको गुप्त कालकी कृति मान लिया जाय तो कहना होगा कि न केवल तत्कालमें भारतीय तक्षण कला ही पूर्ण रूपेण विकसित थी, अपितु तद्विषयक साहित्य सृष्टि भी हो रही थी। यों तो विक्रमकी प्रथम शताब्दीके विद्वान आचार्य पादलिप्तसूरिकी निर्वाणकलिकासे कुछ झाँकी मिल जाती है । ब्रह्मसंहितामें भी मूर्ति विषयक उल्लेख हैं । कवि कालिदास और हर्षने भी अपने साहित्यमें ललितकलाका उल्लेख किया है। ऐसी स्थितिमें वास्तुशास्त्रका अन्तर्भाव हो ही जाना चाहिए । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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