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________________ ४२ खण्डहरोंका वैभव होता था। मानव सभ्यताका प्रेरणाप्रद इतिहास कलाकारों द्वारा ही सुरक्षित रह सका है । वे अपनी उच्चतम सौन्दर्य-सम्पन्न कलाकृतियों द्वारा जन जीवन-उन्नयनकी सामग्री प्रस्तुत करते थे। अतः प्राचीन भारतीय साहित्य और इतिहासमें इसका स्थान अत्युच्च है । जैनाचार्य श्रीमान् हरिभद्रसूरिजीने-जो अपने समयके बहुत बड़े दार्शनिक और प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थकार थे-अपने षोड़शप्रकरणों में कलाकारोंके सम्बन्धमें जो विचार व्यक्त किये हैं, वे भारतीय कलाके इतिहासमें मूल्यवान् समझे जावेंगे। उनके हृदयमें कलाकारोंके प्रति कितनी सहानुभूति थी, निम्न शब्दोंसे स्पष्ट है “कलाकारको, यह न समझना चाहिए कि वह हमारा .. वेतन-भोगी भृत्य है, पर अपना सखा और प्रारम्भीकृत कार्यमें परम सहयोगी मानकर उनको अावश्यक सुविधाएँ दे, सदैव सन्तुष्ट रखना चाहिए, उनको किसी भी प्रकारसे ठगना नहीं चाहिए। समुचित वेतनके साथ, उनके साथ ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे उनके मानसिक भाव दिन प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हों, ताकि उच्चतम कलाकृतिका सृजन कर सके ।” वास्तुकला वास्तुकला भी ललिताकलाका एक भेद है। शिल्पकला आवश्यकताओंकी पूर्तिके साथ सौंदर्यका संवर्धन भी करती है। जिस प्रकार प्राणीमात्रकी समवेदनाका सर्वोच्च शिखर संगीत है-ठीक उसी प्रकार शिल्पका विस्तृत और व्यापक अर्थ भवन-निर्माण है । जनतामें आम तौरपर शिल्पका सामान्य अर्थ ईटपर ईट या प्रस्तरपर प्रस्तर संजोकर रख देना ही शिल्प है, परन्तु वस्तुस्थितिकी सार्वभौमिक व्यापकताके प्रकाशमें यह परिभाषा भावसूचक ज्ञात नहीं होती-अपूर्ण है। शिल्पकी सर्वगम्य व्याख्या कलाके समान ही सरल नहीं है। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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