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________________ ३७ खण्डहरोंके वैभवमें मध्यप्रान्त के जैन, बौद्ध और हिन्दू पुरातत्त्वपर जो सामग्री प्रकट हुई है वह अन्तिम नहीं है, पर भविष्य में की जाननेवाली शोधकी भूमिका मात्र है । इसमें प्रकाशित निबंधों में मुझे पूर्व प्रकाशित निबंधापेक्षा आमूल परिवर्तन व परिवर्द्धन करना पड़ा है । और संभव है भविष्य में भी करना पड़े। शोधका विषय ही ऐसा है जिसकी थाह नहीं है । पुरातत्त्वान्वेषण में छोटी-छोटी वस्तु भी शोधकी दृष्टिसे बहुत महत्त्व रखती है । उसका तात्कालिक महत्त्व नहीं होता पर किसी घटना विशेष के साथ सम्बन्ध निकल आनेपर वह इतनी महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हो जाती है कि उसके आधारपर प्रकाण्ड तद्विदोंको स्वमतपरिवर्तनार्थ बाध्य होना पड़ता है । मुझे खुदको जैन मंदिरोंके नवोपलब्धिके कारण अपना मत बदलना पड़ा | इस वैभवमें मैंने न केवल खंडहर व वनस्थ कृतियोंका समावेश किया है, अपितु जो सजे - सजाये मंदिरोंमें सौन्दर्यसंपन्न कृतियाँ थीं उनका भी उल्लेख किया है। क्योंकि मंदिरोंमें भी जैन पुरातत्त्वान्वेषणकी प्रचुर साधन-सामग्री विद्यमान हैं, पर हमारा कलापरक स्वस्थ व स्थिर दृष्टिकोण न होनेके कारण उनका महत्त्व सीमित हो गया है और हम उममें कला व सौन्दर्यका उचित मूल्यांकन नहीं कर पाते । काश अब भी हम कुछ सीखें | मध्यप्रान्तकी अवलोकित जैनाश्रित शिल्प, सामग्रीसे मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि कलचुरियोंको लगाकर आजतक जैनाश्रित कलाकी लता शुष्क नहीं हुई है । प्रत्येक शताब्दीके जैनमंदिर व मूर्तियाँ पर्याप्त उपलब्ध होती हैं । कई जगह जैन नहीं हैं पर जिन प्रतीक विद्यमान हैं । I मैं प्रसंगतः एक बातका स्पष्टीकरण श्रावश्यक समझता हूँ। वह यह 'मध्यप्रान्तीय जैनमंदिरोंमें सैकड़ों प्रतिमा लेख भी उपलब्ध हुए हैं । उनमें से मेरे विहारमें आनेवाले लेखोंका प्रकाशन मेरे " जैन धातुप्रतिमा लेख" में हुश्र है 1 Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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