SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण-संस्कृति और सौन्दर्य ४२७ संस्कृतके समालोचकोंने पर्याप्त विवादके बाद आनन्दको ही परमरसआनन्दः परमो रसः मान लिया है। पंडितराज जगन्नाथने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रसगंगाधर' में इसका सूक्ष्म गंभीर एवं मार्मिक विवेचन किया है । यहाँ मुझे इतना स्पष्ट कर देना चाहिए कि प्राकृतिक सौंदर्यजनित आनन्द कलाजनित आनन्दसे भिन्न कोटिका होता है। यह भिन्नत्व अनुभवगम्य है, विश्लेषणका विषय नहीं। __ ललित कला, शिल्प, चित्र, नृत्य, काव्य और संगीतादि कलाओंका एकमात्र उद्देश्य है रस-सृष्टि । प्राकृतिक वस्तुके गंभीर निरीक्षणसे कलाकारके मनमें अनुभूतिका उदय होता है और भावोत्पत्ति भी। भावनाके साथ कल्पनाका सम्मिश्रण कर कलाकार सौंदर्य सृष्टि करनेको प्रवृत्त होता है, उसके कृतकार्य होनेपर द्रष्टाके हृदयमें आनन्द उत्पन्न होता है । यही रससृष्टि है। संपूर्ण भारतवर्षमें इस सृष्टिके बहुसंख्यक प्रतीक उपलब्ध हैं। विश्वकविने कहा है "मनुष्य अपने काव्यों में, चित्रोंमें, शिल्पमें सौन्दर्य प्रकाशित कर रहा है।" इस पंक्तिसे स्पष्ट है कि भाव-जो आनन्दका जनक है-के व्यक्तीकरणके कई माध्यम हैं-भाषा, तूलिका और छैनी। उपादानोंमें भी बाहुल्य है। मौलिक एकतामें पारस्परिक पर्याप्त साम्य है । मैं शिल्पी, कवि और चित्रकारका भिन्न-भिन्न उल्लेख उचित नहीं समझता । कलाकार शब्द इतना व्यापक है कि इसमें सभी भावप्रधान जीवन-यापन करनेवालोंका अन्तर्भाव हो जाता है। भावजगत्के प्राणियोंका मानसिक धरातल कितना उच्च और परिष्कृत होता होगा, यह तो विभिन्न कृतियोंके तलस्पर्शी निरीक्षणसे ही जान सकते हैं। कलाकारका युगके प्रति महान् दायित्व है। पर अद्यतन राजनीतिके युगमें कलाकारोंकी जो उपेक्षा हो रही है, वह श्रेयस्कर नहीं है । राजनीतिज्ञका जीवन अस्थिर है जब कलाकारका जीवन अविचल है, सार्वकालिक है, सत्याश्रित है । साहित्य, पृष्ठ ५३ । Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy