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________________ ३४ - मैंने गतवर्ष उनके सुयोग्य पुत्र श्री नित्येन्द्रनाथ सीलके पास देखी थी । इसके प्रकाशनसे जैन-पुरातत्त्वकी कई मौलिक सामग्रीपर अभूतपूर्व प्रकाश पड़ने की संभावना है । घनसौरकी खोज श्रापने ही की थी, जहाँ ५२ जैन मंदिरोंके खण्डहर उन दिनों थे । श्राज तो केवल पाषाणों का ढेरमात्र हैं । इनके अतिरिक्त स्व० यादव माधव काले, ब्यौहार श्री राजेन्द्रसिंहजी, श्री प्रायगदत्तजी शुक्ल, श्री एच० एन० सिंह, डॉ० हीरालालजी जैन, श्री वा० वि० मिराशी आदि सरस्वती पुत्रोंने प्रान्तकी गरिमाको प्रकाशित करनेमें जो श्रम किया है और आज भी कर रहे हैं, उनसे बहुत आशा है कि वे अपने शोध कार्य द्वारा छिपी हुई या दैनन्दिन नष्ट होनेवाली कलात्मक सम्पत्ति के उद्धार में दत्तचित्त होंगे । खण्डहरोंका वैभव समय- समयपर लिखे गये पुरातत्त्व व मूर्त्तिकला विषयक १० निबंधका संग्रह है। तीन वर्ष से कुछ पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ काशीके उत्साही मंत्री बाबू अयोध्याप्रसादजी गोयलीय व लोकोदेय ग्रन्थमालाके सुयोग्य सम्पादक बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी जैनने मुझसे कहा था कि मैं उन्हें अपने चुने हुए निबंधों का संग्रह तैयार दूँ । पर मेरे प्रमाद के कारण बात यों ही टलती गई । परंतु श्री गोयलीयजी काम करवानेमें ऐसे कठोर व्यक्ति हैं कि उनको टालना, मेरे जैसे के लिए किसी भी प्रकार संभव न था । उनके ताने तकाजे भरे उपालंभ पूर्ण पत्रोंने मुझे संग्रह शीघ्र तैयार करने को विवश कर दिया । प्रमाद जीवनोन्नतिमें बाधक हुआ करता है पर इस वैभवके लिए तो वह वरदान ही सिद्ध हुआ । इसका अनुभव मुझे इन पंक्तियोंके लिखते समय हो रहा है । बात यों है । मुझे १६४६ के बाद बनारस से विन्ध्यप्रदेश होकर अपने पूज्य गुरुवर्य श्री उपाध्याय मुनि सुखसागरजी महाराजके साथ पुनः मध्य प्रान्त आना पड़ा । इतः पूर्व १६४० - १६४५ तक हम लोग मध्यप्रान्तके Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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