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________________ चार पगड़ियाँ महाकोसलका प्रतिभासंपन्न कलाकार जितनी सजगतासे धर्ममूलक कृतियों का सृजन करता था उतनी ही दक्षतासे तत्कालीन जन-जीवनको भी अपने कुशल करों द्वारा प्रस्तरोंपर उत्कीर्णित करनेकी क्षमता रखता था। ऐसे सैकड़ों अवशेष महाकोसल के खंडहर और जंगलोंमें गिरी हुई दशामें पड़े हैं। उनकी ओर आज देखनेवाला कोई नहीं है। जिस समय इनका निर्माण हुआ था, उस कालमें ये हो जनजीवन-उन्नयनके प्रतीक रहे होंगे। भारतीय समाज व्यवस्था और लौकिक जीवनके भौतिक, क्रमिक विकासपर ऐसे ही अवशेष पर्याप्त प्रकाश डाल सकते हैं । वेशभूषा और आभूषणोंसे हमारी कालमूलक समस्याएं सुलझ जाती हैं । पारस्परिक कलात्मक प्रभाव का परिज्ञान वेशभूषाके तलस्पर्शी अध्ययनपर निर्भर है। हम यहाँपर इस विषयपर अधिक विवेचन न कर 'इन पंक्तियोंका प्रभाव महाकोसलीय शिल्पमें पायी गयी पगड़ियोंपर कहाँतक पड़ा है, एवं इनके क्रमिक विकास की रेखाएँ शिल्प-कृतियोंमें कहाँ तक पायी जाती हैं, उनपर संस्कृति विशेषका असर कहाँ तक है' आदि कुछ मौलिक प्रश्नोंपर ही विचार करना अभीष्ट है । मूल विषयपर आनेके पूर्व हम इन पगड़ियोंको समझ लें तो अधिक अच्छा होगा। पहली पगड़ी हम सर्वप्रथम उस 'बस्ट' को लेंगे जो सापेक्षतः व्यक्तिके पूर्ण व्यक्तित्व का आभास दे सकता है । यह बस्ट अनुभवमें पके हुए वयोवृद्ध योद्धाका ही होना चाहिए । गर्दन तथा मस्तकके पास मुर्रियाँ एवं चक्षुकी मुद्रा योद्धाकी वृद्धावस्थाका परिचायक हैं । वक्षस्थल तथा शिरोभागपर, शत्रुकी तलवार से अपनी रक्षा करनेके लिए सुदृढ़ देहत्राण एवं शिरस्त्राण लगाये गये हैं। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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