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________________ महाकोसलकी कतिपय हिन्दू-मूर्तियाँ बहुत ही सुन्दर रूपसे गुँथा हुआ पाया गया है, साथमें नारी सुलभ आभूषण भी । यदि मूँछें और श्मश्रुके चिह्न न होते तो पुरुष एवं नारीका भेद करना कठिन हो जाता । यों तो शंकरका जटाजूट विख्यात है । परन्तु यहाँ की कुछ शैव मूर्तियों में शंकरजीका केश विन्यास भी नारीके समान दृष्टिगोचर होता है । स्त्री और पुरुषोंकी सामूहिक नृत्य-पद्धति के कारण ही महाकोशल के कतिपय पुरुषोंने इस प्रकारका रूप अपनाया हो तो असंभव नहीं, कारण कि आदिम छत्तिसगढ़ी एवं विहार के जंगलोंमें बसनेवाले कोल, मुण्डा एवं सन्थाल जातिके पुरुषोंको मैंने स्वयं नारीवत् केशविन्यास के एवं आभूषण पहने देखा है, ये नचैये कहे जाते हैं । ४०६ मूर्तिकला में व्यवहृत आभूषण एवं वस्त्र तथा परिकर, सामयिक अलंकरण, सामाजिक इतिहासकी अच्छी सामग्री प्रस्तुत करते हैं । सम-सामयिक साहित्यके प्रकाशमें यदि इन कलात्मक अवशेषोंको देखा जाय तो उपर्युक्त पंक्तियोंकी सार्थकताका अनुभव हो सकता है । उपसंहार - उपर्युक्त पंक्तियोंसे सिद्ध होता है कि हिन्दू धर्माश्रित मूर्तिकलाके विकास में महाकोसलका उल्लेखनीय योग रहा है । वर्णित समस्त अवशेष कलचुरि कालोन ही हैं, क्योंकि सभीपर कलिचुरियुगीन मूर्ति-कला एवं तदाश्रित उपकरणोंकी स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है । वे शैव होने के बावजूद भी परमत सहिष्णु थे । कलचुरिकालीन प्रतिभासंपन्न कलाकारोंकी इन वृत्तियोंके अध्ययनकी ओर न जाने आजतक विद्वानोंने क्यों ध्यान नहीं दिया। भारतीय शिल्पकला एवं मूर्तिकलासे स्नेह रखनेवाले गवेषक विद्वानोंसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वे एक बार इस प्रान्त में आकर अनुभव करें । निःसंदेह उनको अपने विषयकी प्रचुर सामग्री प्राप्त होगी । वे प्रसन्न होंगे । जो छात्र एम० ए० करनेके बाद आचार्यत्व - डाक्टरेट — के लिए विषय खोजते फिरते हैं उनसे भी मेरा अनुरोध है कि यदि वे खंडहरोंपर अपना अन्वेषण प्रारम्भ करें तो उन्हें कई महानिबन्धकी सामग्री प्राप्त हो Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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